विश्व प्रसिद्ध जाट शौर्य | जाटों की वीरगाथा

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जाटों की वीरगाथा Bravery of Jats

यह सर्वमान्य सत्य है कि जाट जाति अत्यंत ही देशप्रेमी, स्वावलम्बी, कर्मशील, परिश्रमी, जुझारू, शौर्यवान, दयालु एवं स्वाभिमानी जाति है। इसके उपरांत भी जाटों की वीरगाथा को इतिहास में न के बराबर ही स्थान मिला है। यदि कुछ विदेशी इतिहासकारों यथा-कर्नल टाॅड, कनिंघम, विलियम क्रुक, ब्रुकमैन तथा अरब इतिहासकारों ने जाटों के विषय में विस्तार से न लिखा होता, तो आज तक भी जाटों का इतिहास अज्ञात ही होता। क्योंकि जाट जाति के जुझारू और शूरवीर होने के कारण वह अन्य जातियों की आंखों में शूल की तरह गड़ती रहती थी। यही कारण था कि इस जाति को कुछ बड़ी जाति वालों ने शूद्र तक की संज्ञा देने में कोई हिचक का अनुभव नहीं किया था।
जाटों की शूरवीरता का प्रमाण सबसे पहले हमें पांचवी सदी में मिलता है। गुप्त साम्राज्य के अंतिम चरण में बर्बर हूणों ने भारतवर्ष पर कई बार विशाल आक्रमण किये थे। उन्होंने भारत में अपने विशाल साम्राज्य की स्थापना की। इतिहासकार चंद्रगोमिन कृत व्याकरण में ‘अजेय जर्टो हूर्णान’ के अनुसार पांचवीं सदी में भारत की पश्चिमी सीमाओं पर जाट आबाद थे। जाटों ने विदेशी हमलार हूणों को अपने बाहूबल से अनेकों बार परास्त किया और उन्हें लूटकर भगा दिया था। इतिहासकारों का कहना है कि संभव है कि जाटों ने हूणों को अपनी जाति में मिला लिया हो। जिससे उनका वंशबीज ही समाप्त हो गया हो।
प्रसिद्ध चीनी इतिहासकार और सैलानी ह्नेन सांग ने भी अपने यात्रा वृतांतों में जाट जाति के शौर्य और उसकी क्षमताओं के विषय में विस्तार से लिखा है। सम्राट दाहिर के समकालीन अरब इतिहासकारों द्वारा लिखित इतिहास से भी जाटों के शौर्य का पता चलता है। अरब इतिहासकारों के अनुसार सन् 712 ई. में अरब सेनापति मुहम्मद बिन कासिम ने सिंध के अंतिम दाहिर सम्राट साहसीराय के विरुद्ध युद्ध अभियान छेड़ने के निमित्त मिहरान (सिंध नदी) की ओर कूच किया था। उसके साथ चार हजार जाटों की एक शक्तिशाली टुकड़ी भी थी। दूसरी ओर साहसीराय के साथ भी एक विशाल जाट सेना थी। युद्ध क्षेत्र में जाने से पहले ही मुहम्मद बिन कासिम और साहसीराय में शांति समझौता हो गया। मुहम्म्द बिन कासिम ने कर वसूलने के साथ जाट वीरों की वीरता से प्रभावित होकर साहसीराय से कर के रूप में चार हजार जाटों की एक सैनिक टुकड़ी ली थी जिसे उसने सादुसान नगर में बसाया और उन्हें इस नगर की रक्षा का भार सौंपा।
इतिहास पुस्तक नुब्हतुल मुस्ताक के लेखक अल इदरीसी के अनुसार जाटों ने इस नगर में अनेकों नहरों तथा जलाशयों का निर्माण कर इस नगर के आसपास की खेती योग्य भूमि को अत्यंत ही उपजाऊ बनाने में अपना महती योगदान दिया।
सिंध प्रांत पर अरबों का शासन बना रहा। किंतु यहां के राज्यपाल सूबेदार तथा विजेता सरदारों के व्यक्तिगत मतभेदों के कारण खलीफा की शक्ति को 812 ई. में उस समय गहरा धक्का लगा जब सिंध प्रांत के शासकों ने स्वयं को स्वतंत्र कहना आरम्भ कर दिया। इस समय कैंकन (वर्तमान किलात) और समीपवर्ती भूखण्डों पर जाटों का स्वतंत्र राज्य स्थापित हो चुका था। जाट सिपाहियों ने अरल नदी (सक्सर के पास) के आसपास तक के क्षेत्र पर अपना अधिकार कर लिया था। इन जाट सैनिकों का सेनापति समलू नामक जाट सरदार था। कैंकन के जाट लूटमार करके शक्ति संचय कर रहे थे। अतः खलीफा अल मुत्सिम ने जाटों को दबाने का निश्चय किया और उसने 834 ई. में अजीफ बिन ईसा के नेतृत्व में विशाल सेना रवाना की। जाट सैनिकों ने हजारा की सड़क को घेरकर पड़ोसी जिलों तक अपना घेरा बढ़ा दिया। उन्होंने कासगर के किले और शहर के संचित अन्न भंडारों को लूट लिया।
समस्त जिलों में बुरी तरह से भय व्याप्त हो गया। तत्पश्चात जाट मरुभूमि के चारों ओर बिना किसी विशेष अवरोध के अपनी सैनिक चैकियां स्थापित करने में सफल हो गये।
अरब मुस्लिम आक्रांता महमूद गजनवी ने भारतवर्ष पर एक के बाद सत्रह आक्रमण किये। और महान आश्चर्य की बात है कि वह प्रत्येक हमले में जीतकर ही अपने वतन वापिस लौटा। वह प्रत्येक हमले में भारत के राजाओं व हिंदुओं के मंदिरों को लूटकर यहां से अकूत धन ले गया। वह प्रत्येक युद्ध को आसानी से जीतता ही गया। उसकी 25-30 हजार सैनिकों से युक्त छोटी सी सेना ने अपने मार्ग में पड़ने वाले दर्जनों भारतीय राजाओं को बात की बात में हरा दिया। अधिकांश कथित ‘परमवीर राजपूत’ राजा उसके सामने स्वयं ही आत्मसमर्पण कर बैठे। बहुत से राजाओं ने अपने शत्रु का दमन करने का सुअवसर जान, अपने पड़ोसी राजाओं के विरुद्ध महमूद गजनवी की सहायता कर उन्हें हरवाया और इतिहास मेें सदा के लिए अपने देश के वीरों के शौर्य को अपमानित कराने के साथ उस विदेशी आक्रांता को महान और अपराजेय घोषित करवाने में सफल हुए।
उस समय देश में छोटे-छोटे शासक थे। जिनमें राजनीतिक एकता का नितांत अभाव था। ये शासक अपने पड़ोसी राज्यों पर गिद्ध दृष्टि लगाये रहते थे और किसी भी तरह से अपने पड़ोसी राजा को हानि पहुंचाकर उसका राज्य हस्तगत करने का प्रयास करते रहते थे। महमूद गजनवी के रास्ते में पड़ने वाले सभी स्थानीय शासक उसके सामने नतमस्तक हो गये और उसके सामने आत्मसर्पण कर दिया। यही नहीें उन्होंने अपने निहित स्वार्थों के चलते सुलतान का साथ दिया और अपने पड़ोसी राजाओं को परास्त कराने में महत्वपूर्ण भूमिका भी निभायी। यदि उनमें देश की अस्मिता को सर्वोपरि मानने की भावना होती, यदि उनमें पड़ोसी राजाओं से ईष्र्या के स्थान पर मातृभूमि की रक्षा करने की भावना होती, तो वे महमूद को चींटी की तरह से मसल कर रख सकते थे। महमूद की क्या मजाल थी कि वह भारत भूमि पर पैर भी रख पाता। यदि वे राजा एक-दूसरे से अपनी व्यक्तिगत ईष्र्या को निकालने के लिए उसका साथ न देकर, संगठित हो जाते, तो वह दुर्दांत आक्रांता यहां से जीवित नहीं निकल सकता था। लेकिन देश का दुर्भाग्य! हमारे देश के महान वीरों के शौर्य को इन आलसी, ईष्र्यालु और दंभी राजाओं के माध्यम से कलंकित होना था।
गजनवी ने यह बात पहले आक्रमण में ही अच्छी तरह से समझ ली थी कि भारत वर्ष के राजा अपने स्वार्थ से आगे की नहीं सोचते। उसे यह अच्छी तरह से पता था कि भारतीय राजा एक दूसरे को नीचा दिखाने और उसे नष्ट करने का सदा सपना देखते रहते हैं और यदि उनके स्वार्थों की पूर्ति हो सकती हो, तो वे अपने पड़ौसी राजा को नीचा दिखाने के लिए कुछ भी कर सकते हैं। यहां तक कि किसी देश के दुश्मन से भी हाथ मिला सकते हैं। गजनवी ने इन राजाओं की इन कमजोरियों का लाभ उठाया और उसने एक बार नहीं, चार बार भारत को जी भरकर लूटा।
इतिहास साक्षी है कि महमूद गजनवी के प्रत्येक हमले में तथाकथित ‘उच्चकुलीन राजपूतों’ ने महमूद के सामने आत्मसमर्पण कर सोमनाथ के शिव मंदिर और अन्य सभी मंदिरों को अनाथ की तरह लुटने के लिए छोड़ दिया था। भारत के उन तथाकथित ‘शूरवीरों’ की आंखों के सामने हमारे देवस्थान लुटते रहे, और वे राजा हाथ बांधे महमूद के सामने सिर झुकाए खड़े रहे। यह था हमारे तत्कालीन राजाओं का राष्ट्रीय चरित्र और उनका चिंतन। अस्तु।
उस दुर्दांत लुटेरे महमूद का सामना करने का साहस उस समय केवल कुछ जाट ही कर सके थे। जिन जाटों के पास उस समय न अपना कोई साम्राज्य था, न उनके पास अपनी कोई संगठित सैन्य शक्ति ही थी और न उनके पास सैन्य सामग्री ही थी। उनके पास कोई विशेष अस्त्र-शस्त्र या उन्हें चलाने का अनुभव भी नहीं था। जाटों को किसी साम्राज्य को पाने की लालसा भी न थी। किंतु जाट देशभक्ति के जज्बे से ओतप्रोत थे। उनमें अपने देश के दुश्मन के प्रति भयंकर आक्रोश भरा हुआ था और उसी आक्रोश को प्रकट करने के लिए वे उस दुर्दांत लुटेरे महमूद गजनवी से बार-बार भिड़ते रहे।
ये जाट लड़ाके छोटे-छोटे दलों में आते और छापामार शैली में महमूद की सेना पर हमला करते और वे जो कुछ लूट सकते थे, लूटकर भाग जाते थे। लुटेरे को लूट रहे थे वे जाट। महमूद की फौजें उन जाटों का कुछ भी न बिगाड़ पाती थीं। इससे गजनवी इन जाटों से बहुत ही रुष्ट था और किसी ऐसे अवसर की ताक में था कि वह उन्हें सबक सिखा सके।
भारत पर तीसरे आक्रमण से प्राप्त बेशुमार दौलत के साथ जब गजनवी वापिस अपने देश लौट रहा था, तो सदा की तरह इस बार भी जाटों ने उसके कारवां को बुरी तरह से लूटा। बल्कि इस बार तो जाटों ने बहुत अधिक मात्रा में उसकी लूट की दौलत को लूटा। क्योंकि महमूद के लूटे हुए खजाने की लूट से जाट धीरे-धीरे मजबूत स्थिति में आते जा रहे थे। इन अभियानों में जाटों ने उससे जो लूटा था, उससे जाट प्रचुर मात्रा में सैन्य सामग्री जुटा पाने में समर्थ हो गये थे। और वे हर बार और अधिक शक्ति से महमूद गजनवी को शिकस्त देने में सक्षम होते जा रहे थे। जब वह तीसरी बार भारत को जीतने की खुशी में डूबा दिवास्वप्न देखता वापिस अपने वतन लौट रहा था, तो जाटों ने उसके सैन्य काफिले पर आक्रमण कर जी भरकर लूटा और उसके दिवास्वप्न को तोड़ दिया।
इस पर महमूद तिलमिला उठा और उसने इस बार जाटों को सबक सिखाने का मन बना लिया। उसने निर्णय कर लिया कि वह उन उद्दण्ड जाटों को सबक सिखाने के लिए भारत पर एक और आक्रमण करेगा। गजनी में जाते ही उसने चैथे आक्रमण की तैयारी शुरू कर दी। गजनवी के इस इरादे की भनक जाटों को भी मिल गयी और वे भी उससे दो-दो हाथ करने के लिए तैयार हो गये। अब उनके पास इतना धन मौजूद था कि वे उससे वांछित युद्धक सामग्री एकत्र कर सकते थे।
इतिहासकार मुहम्मद हबीब कृत पुस्तक सुलतान महमूद आफ गजनवी के अनुसार जाटों से सिंध प्रांत की नदियां सुरक्षित रूप से पार करने के लिए महमूद ने चार हजार चार सौ विशाल नौकाओं का एक विशाल बेड़ा बनाया था। इस बेड़े में शामिल नौकाओं पर उसने भालेनुमा बड़ी-बड़ी नोकें लगवायी थीं और उन नौकाओं पर प्रचुर मात्रा में आधुनिक हथियार और गोला-बारूद रखवाया था।
उधर जाटों ने भी महमूद से लोहा लेने के लिए कमर कस रखी थी। उन्होंने अपने परिवारों को सिंधु नदी के पार वाले सुरक्षित क्षेत्रों में भेज दिया था। और चार हजार जाट सिर पर कफन बांधकर कुल चार सौ नौकाओं में बैठकर महमूद गजनवी की विशाल सेना से टकराने के लिए निकल पड़े।
तुज्बक्त-ए-अकबरी के अनुसार जाट अपने प्राणों की परवाह न करते हुए सुलतान गजनवी की सेना पर टूट पड़े। सुलतान के पास अत्याधुनिक सैन्य सामग्री थी, विशाल सेना थी और हिंदुस्तान को तीन बार विजय करने से उपजा बुलंद हौसला था। जबकि उसके मुकाबले जाटों के पास मुट्ठी भर जवान थे जिनके पास महमूद की तुलना में नगण्य अस्त्रास्त्र थे। किंतु उनके दिलों में अपने देश के दुश्मन से लोहा लेने का बुलंद जज्बा था। सुलतान ने उनके देश को ही नहीं लूटा था, उसने उनके पवित्र मंदिरों तक को तबाह कर दिया था। जाट इस बात को सहन नहीं कर सकते थे और वे सुलतान को उसकी इस गुस्ताखी का सबक सिखाना चाहते थे।
मुहम्मद हबीब कृत सुलतान महमूद आफ गजनवी के अनुसार सुलतान चूंकि जाटों से पहले ही चिढ़ा बैठा था, अतः उसने अपनी सेना को उन जाटों को समूल नष्ट कर देने का आदेश दे दिया। किंतु देखने में जाटों की उस टुकड़ी को नष्ट करना इतना आसान न था, जितना कि सुलतान ने समझ रखा था। जाटों की इस टुकड़ी ने देखते ही देखते सुलतान की अनेकों नौकाओं को ध्वस्त कर डाला और उसके सैकड़ों सैनिकों का वध कर डाला। सुलतान जाटों की वीरता देखकर सकते में रह गया। उसे सपने में भी यह आशा न थी कि जाटों की वह छोटी सी टुकड़ी उसकी सेना का इस प्रकार से विध्वंस कर डालेगी। उसे यह जानकर हैरत हो रही थी कि जिस देश के शक्ति सम्पन्न राजा उसके सामने नतमस्तक हो गये थे, वहां के मुट्ठी भर जाट किस प्रकार उसकी सेना का प्रतिरोध कर रहे थे और उसे हानि पहुंचा रहे थे।
जाटों और सुलतान की सेना के बीच कई दिन तक भयंकर युद्ध हुआ। युद्ध में जाटों की सेना तेजी से कम होती जा रही थी। लेकिन उससे भी तेजी से सुलतान की सेना का नाश हो रहा था। प्रत्येक जाट वीर सुलतान की सेना के कई-कई सैनिकों को मार रहा था। किंतु सुलतान की विशाल सेना के मुकाबले में मुट्ठी भर जाट सेना में इस विध्वंस का प्रभाव अधिक दिखाई दे रहा था। किंतु यह देखकर भी कि वे अब गिनती के ही शेष रह गये हैं, जाट अंत तक लड़ते रहे। जब तक कि एक भी जाट सैनिक शेष रहा, युद्ध चलता रहा। अंत में जाटों की सम्पूर्ण सेना समाप्त हो गयी। किसी एक जाट सैनिक ने भी सामने हार और मृत्यु देखकर भी शत्रु को पीठ नहीं दिखायी।
इस युद्ध में सभी चार हजार जाट देश पर बलिदान हो गये। लेकिन उन्होंने सुलतान के बीस हजार सैनिकों को मार डाला था। सुलतान की सेना ने जाटों का सफाया तो कर दिया, किंतु उसे इस युद्ध की बड़ी कीमत चुकानी पड़ी। जाटों के मुकाबले में उसके पांच गुना सैनिक खेत रहे थे। जाटों को परास्त करने के बाद सुलतान ने जाटों के परिवारों को खोज-खोजकर नष्ट करना शुरू कर दिया। उसने जाटों के परिवारों पर बहुत ही जुल्म ढाये। जाटों का जो परिवार जहां कहीं भी मिला, उसे नष्ट कर दिया गया।
भारत का इतिहास बताता है कि जाट जाति ने अपने भुजबल से सभी विदेशी आक्रांताओं से डटकर लोहा लिया। यद्यपि उनका कोई संगठित प्रांत अथवा साम्राज्य न था। उनके पास कोई किला न था, फिर भी उन्होंने केवल छोटे-छोटे कबीलों को मिलाकर ही इन आक्रांताओं को देश से बाहर निकालने में अग्रणी भूमिका निभायी।
भारत के अंतिम सम्राट पृथ्वीराज की पराजय के बाद जाटों ने सन् 1192 में सुलतान कुतुबुद्दीन एबक के विरुद्ध युद्ध का बिगुल बजाया था। उन्होंने देश की मान मर्यादा की रक्षा के लिए कभी अपने प्राणों का मोह नहीं किया। जाटों ने इसी प्रकार सुलतान मुहम्मद बिन तुगलक को भी नाकों चने चबाये थे।
सुलतान मुहम्मद बिन तुगलक ने जानबूझकर हिंदू किसानों पर जब अनावश्यक कर बढ़ा दिये, तो जाटों ने ही उसकी इस नीति का जमकर विरोध किया था और सैनिक संघों का गठन कर सुलतान के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया था। यद्यपि सुलतान की विशाल सेना के सामने जाट कोई विशेष सफलता प्राप्त नहीं कर सके, लेकिन इसके बावजूद भी उनका हौंसला नहीं टूटा और वे निरंतर कई वर्षों तक सुलतान की सेना के साथ छद्म युद्ध करते रहे और सुल्तान की सेना को छकाते रहे।
मुगलिया सल्तनत के संस्थापक बाबर को भी जाटों से कई बार टक्कर लेनी पड़ी थी। बाबर को इन जाटों ने इस बुरी तरह से छकाया था कि उसे जाटों का सफाया करने के लिए भारी सेना भेजनी पड़ी थी। दिसम्बर 29, सन् 1525 ई. को लिखे बाबरनामा में वह अपने संस्मरण में लिखता है-‘यदि कोई हिंदोस्तान जाए, तो उसे असंख्य घुमक्कड़ जत्थों के रूप में जाट और गूजर पहाड़ी तथा मैदानी भागों में बैल और भैंस लूटने के लिए भीड़ के रूप में इकट्ठे मिलेंगे। वे अभागे बड़े ही मूर्ख और निष्ठुर होते हैं।…’
जब शेर शाह सूरी गद्दीनशीन हुआ, तो उसके क्षेत्र के जाटों ने विद्रोह कर, कई जगह अपने आपको स्वतंत्र घोषित कर दिया और स्वयं ही लगान आदि संग्रह करने लगे। उन्होंने शेरशाह सूरी के खजानों को लूट लिया और अपनी स्थिति काफी सुदृढ़ कर ली। शेरशाह ने भारी सैन्य दल भेजकर इन जाटों को दबाने का प्रयास किया।
हिंदु जाट सरदार सीड़ू के नेतृत्व में जाटों ने शेरशाह की सेना से जबर्दस्त टक्कर ली। जाटों और शाही सेना में भयंकर युद्ध हुआ। जाट सरदार अपने परिवारों को बलिदान कर स्वयं हथियार लेकर अपने प्राण हथेली पर रखकर आर-पार की जंग करने के लिए शत्रु की सेना पर टूट पड़ेे।
शेरशाह सूरी की भारी शाही सेना के सामने इन कुछ सौ वीरों की कोई गिनती न थी, किंतु उन्होंने अपने शत्रुओं को भरसक गाजर मूली कर तरह काट डाला और फिर स्वयं भी आजादी की बलिवेदी पर शहीद हो गये।

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