शहीद उदमी राम – सन् 1857 की क्रांति के दौर में असंख्य ऐसे असीम महान क्रांतिकारी, देशभक्त, बलिदानी, एवं शहीद रहे, जो इतिहास के पन्नों में या तो दर्ज ही नहीं हो जाए, या फिर सिर्फ आंशिक तौरपर ही उनका उल्लेख हो पाया। ऐसा ही एक उदाहरण सोनीपत जिले के गाँव लिबासपुर के महान क्रांतिकारी उदमी राम हैं।
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उदमी राम की राष्ट्रवादिता ने भरा जन जन में जोश
सोनीपत से सात किलोमीटर दूर बहालगढ़ चौंक के नजदीक इस लिबासपुर गाँव के नंबरदार उदमी राम ही थे और दूर-दूर तक उनकी देशपरस्ती के किस्से मशहूर थे। उदमी राम ने आजादी पाने के लिए हर मजदूर, किसान, दुकानदार आदि को अपनी ताकत बना लिया था। उन्होंने लिबासपुर व आसपास के कुंडली, भालगढ़, खामपुर, अलीपुर, हमीदपुर, सराय आदि गाँवों के जन-जन में आजादी की बलिवेदी पर कुर्बान होने का जज्बा कूट-कूट कर भर दिया था।
एक घटना ने बदल दिया उदमी राम का जीवन
उन दिनों उदमी राम के नेतृत्व में २२ नौजवान वीरों का एक दल तो चौबीस घण्टे अंग्रेजी अफसरों को ठिकाने लगाने के मिशन में लगा रहता था। सबसे बड़ी बात यह थी कि वे भूमिगत होकर अपने पारंपरिक हथियारों मसलन, लाठी, जेली, गंडासी, कुल्हाड़ी, फरसों आदि से दिल्ली से होते हुए यहां से गुजरने वाले अंग्रेज अफसरों पर धावा बोलते और उन्हें मौत के आगोश में सुलाकर गहरी खाईयों व झाड़-झंखाड़ों के हवाले कर देते थे।
एक दिन एक अंग्रेज अधिकारी लिबासपुर के नजदीक जी. टी. रोड़ से निकल रहा था। जब इसकी सूचना उदमी राम को लगी तो उन्होंने अपनी टोली के साथ उस अंग्रेज अफसर को भी घात लगाकर मार डालने की योजना बना डाली। उदमी राम ने साथियों सहित अफसर पर घात लगाकर हमला बोल दिया और उस अंगे्रज अफसर को मौत के घाट उतार दिया।
विडम्बनावश उस अंग्रेज अफसर के साथ उनकी पत्नी भी थीं। भारतीय संस्कृति के वीर स्तम्भ उदमी राम ने एक महिला पर हाथ उठाना पाप समझा और काफी सोच-विचार कर उस अंग्रेज महिला को लिबासपुर के पड़ौसी गाँव भालगढ़ में एक बाई (ब्राहा्रणी) के घर बड़ी मर्यादा के साथ सुरक्षित पहुंचा दिया और बाई को उसकी पूरी देखरेख करने की जिम्मेदारी सौंप दी। उदमी राम के कहेनुसार अंग्रेज महिला को अच्छा खाना, कपड़े और अन्य सामान दिया जाने लगा।
कुछ दिन बाद इस घटना का समाचार आसपास के गाँवों में फैल गया। कौतुहूलवश लोग उस अंग्रेज महिला को देखने भालगढ़ में बाई के घर आने लगे और उदमी राम व उसके साथियों के संस्कारों की दाद देने लगे। राठधाना गाँव का निवासी सीताराम अंग्रेजों का मुखबिर और दलाल था। उदमी राम एवं उनके साथियों से संबंधित नया समाचार सुनकर वह भी घटना का पता लगाने के लिए पहले लिबासपुर गाँव में पहुंचा और फिर सारी जानकारी एकत्रित करके बहालगढ़ में बाई के घर जा पहुंचा।
उदमी राम के साथ हुई गद्दारी
अंग्रेजों के मुखबिर सीता राम बंधक अंग्रेज महिला से मिला और लिबासपुर से एकत्रित की गई सारी जानकारी उस महिला को दे दी। उसने अंगे्रज महिला को उदमी राम एवं उनके सभी साथियों गुलाब सिंह, जसराम, रामजस, जसिया, रतिया आदि के बारे में विस्तार से जानकारी दी। केवल इतना ही नहीं, सीताराम ने उस अंग्रेज महिला को बताया कि लिबासपुर गाँव ही अंग्रेजी सरकार के विद्रोह का केन्द्र है और उसी के निवासी ही नंबरदार उदमी राम के नेतृत्व में अंग्रेज अफसरों की घात लगाकर हत्या कर रहे हैं। सीता राम ने अंग्रेज महिला को यह कहकर और भी डरा दिया कि बहुत जल्द वे क्रांतिकारी उसे भी मौत के घाट उतारने वाले हैं। यह सुनकर अंग्रेज महिला भय के मारे कांप उठी। उसने चालाकी से काम लेते हुए सीता राम को बहुत बड़ा लालच दिया और कहा कि यदि वह उसकी मदद करे और उसे पानीपत के अंग्रेजी कैम्प तक किसी तरह पहुंचा दे तो उसे मुंह मांगा ईनाम दिलवाएगी।
सीता राम तो था ही इसी लालच की इंतजार में। उसने झट अंग्रेज महिला की मदद करना स्वीकार कर लिया। लेकिन उसके मार्ग में बाई बाधा बन गई। बाई ने सीता राम को भला-बुरा कहा और अंग्रेज महिला को किसी भी कीमत पर घर से बाहर न जाने देने की जिद्द पर अड़ गई। अब सीता राम ने बाई को यह कहकर बुरी तरह धमकाया और डराया कि यदि वह उसकी बात नहीं मानेगी तो अंग्रेजी सरकार को वह इस घटना की खबर दे देगा और फिर उसके पूरे परिवार को कोल्हू के नीचे कुचल दिया जाएगा। बाई डर गई और डरकर गद्दार सीता राम के हाथों की कठपुतली बन गई। अंतत: सीता राम अपने मंसूबे में कामयाब हुआ। वह बाई के साथ रातोंरात लोगों की नजरों से बचते-बचाते हुए उस अंग्रेज महिला को लेकर पानीपत के अंग्रेजी कैम्प में पहुंच गया।
जिस महिला को आश्रय दिया, वही उदमी राम की हार का कारण बनी
कैम्प में पहुंचकर अंग्रेज महिला ने सीता राम की दी हुई सभी गोपनीय जानकारियां अंग्रेजी कैम्प में दर्ज करवाईं और यह भी कहा कि विद्रोह में सबसे अधिक भागीदारी लिबासपुर गाँव ने की है और उसका नेता उदमीराम है। इसके बाद अंग्रेजों का कहर लिबासपुर एवं उदमीराम पर टूटना ही था। सन् 1857 की क्रांति पर काबू पाने के बाद क्रांतिकारियों एवं विद्रोही गाँवों को भयंकर दण्ड देना शुरू किया। इसी क्रम में अंग्रेजों ने लिबासपुर गाँव को सुबह चार बजे चारों तरह से भारी पुलिस बल के साथ घेर लिया और सख्त नाकेबन्दी कर दी, ताकि एक भी व्यक्ति बचकर जाने न पाए। क्रांतिवीर उदमी राम अपने साथियों सहित अपने पारंपरिक हथियार लाठी, जेली, गंडासी, फरसे आदि के साथ अंग्रेजी सिपाहियों का काफी देर तक मुकाबला किया। अंतत: आधुनिक हथियारों से लैस सिपाहियों के आगे उदमी राम और उसके साथियों को हार का सामना करना पड़ा। कई क्रांतिकारियों को पकड़ लिया गया, काफी क्रांतिकारी मौके पर ही मारे गए और कई भागने में कामयाब हो गये। क्रांतिकारियों के नायक उदमी राम को भी मौके की नजाकत को समझते हुए पास के खेतों में छुपने को विवश होना पड़ा।
उदमी राम के परिवार को अंग्रेजों ने दी भयंकर यातना
इसके बाद अंग्रेज सिपाही गाँव में घुसे और उनके सामने जो भी आया उसी को पकड़ लिया। गाँव में एकाएक आतंक का माहौल बन गया। बच्चे से लेकर बूढ़े तक अंग्रेजों के आतंक से सिहर उठे। सभी गाँव वालों को जबरदस्ती घर से पकड़-पकड़कर चौपाल में एकत्रित कर दिया। इसके बाद हर किसी पर अंग्रेजों का कहर टूट पड़ा। सभी लोगों, महिलाओं, बच्चों और बूढ़ों को जमीन पर उलटा लिटा-लिटाकर कोड़ों से भयंकर पिटाई की गई, लेकिन किसी ने क्रांतिकारियों के खिलाफ मुंह नहीं खोला।
उसी चौपाल में उदमी राम के पिता को भी पकड़कर लाया गया और उसकी बेरहमी से पिटाई की गई और कई तरह से अमानवीय यातना देने के साथ-साथ बुरी तरह से बेइज्जत किया। उनपर अपने लड़के उदमी राम को अंग्रेजी सरकार के सामने आत्म-समर्पण करने के लिए भारी दबाव बनाया। अंतत: वह बुजुर्ग अमानवीय यातनाओं के आगे बेबस हो गया और उसने घर की छत पर खड़े होकर अपने बेटे उदमी राम को आवाज लगाई।
उदमी राम गिरफ्तार हुए
पिता की दर्दभरी आवाज सुनकर उदमी राम पर रहा नहीं गया और उसने अपने खेत की मिट्टी को चूमा और माथे पर तिलक लगाकर उसे आखिरी सलाम किया, क्योंकि क्रान्तिवीर उदमी राम को अंग्रेजी सरकार के समक्ष आत्म-समर्पण करने के अंजाम को भलीभांति पता था। अंजाम की परवाह किए बगैर उदमी राम पूरी निडरता के साथ खेतों से निकलकर गाँव की चौपाल की तरफ चल पड़ा। जैसे ही उसने गाँव में प्रवेश किया, उसका सामना दो सिपाहियों से हो गया और भारत माँ के इस सच्चे लाल ने अपनी जेली से दोनों सिपाहियों को यमलोक पहुंचा दिया। इसके बाद वह खून से सनी जेली के साथ गाँव में पहुंच गया।
उदमीराम के इस भयंकर रौद्र रूप को देखकर चौपाल में मौजूद अंग्रेज सिपाही एकदम हक्के-बक्के रह गये और खौफ के भाव उनके चेहरों पर उतर आए। अंग्रेज सिपाहियों ने साहस बटोरा और एकाएक उदमी राम पर टूट पड़े और उन्हें बन्धक बना लिया।
उदमी राम के बन्धक बनने के बाद अब बाजी पूरी तरह से अंग्रेजों के हाथ में आ गई थी। अंग्रेजों ने क्रांतिकारियों की शिनाख्त के लिए देशद्रोही एवं गद्दार सीता राम और भालगढ़ की बा्रहा्रणी बाई, जिसके घर अंगे्रज महिला को सुरक्षित रखा गया था को भी चौपाल में बुलवाया गया। गद्दारों ने उस समय जिस-जिस व्यक्ति का नाम लिया, अंग्रेजों ने उन सबको तत्काल गिरफ्तार कर लिया।
उदमी राम को अंग्रेजों ने दी भयंकर यातनाएं
इसके बाद अंगे्रजों ने क्रांतिकारियों को जो दिल दहलाने वाली भयंकर सजाएं दीं, उन्हें शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता। क्रान्तिवीर उदमी राम को उनकी पत्नी श्रीमती रत्नी देवी सहित गिरफ्तार करके राई (सोनीपत) के कैनाल रैस्ट हाऊस में ले जाकर उन्हें पीपल के पेड़ पर लोहे की कीलों से ठोंक दिया गया। अन्य क्रांतिकारियों को जी.टी. रोड़ पर लेटाकर बुरी तरह से कोड़ों से पीटा गया और उनकी चमड़ी उधेड़ दी गई। इसके बाद सड़क कूटने वाले कोल्हू के पत्थरों के नीचे राई पड़ाव के पास बहालगढ़ चौंक पर सरेआम खून से लथपथ क्रांतिकारियों को बुरी तरह से रौंद दिया गया। इनमें से एक कोल्हू का पत्थर सोनीपत के ताऊ देवीलाल पार्क में आज भी स्मृति के तौरपर रखा हुआ है।
क्रांतिकारियों का कतरा-कतरा कोल्हू के पत्थरों के नीचे मलहम बनकर सड़क पर फैल गया। इस खौफनाक मौत को देखकर आसमान भी थर्रा उठा।
35 दिन भयंकर यातना सहने के बाद शहीद हुए उदमी राम
उधर राई के रैस्ट हाऊस में पीपल के पेड़ पर लोहे की कीलों से टांगे गए क्रांतिवीर उदमी राम और उसकी पत्नी रत्नी देवी को तिल-तिल करके तड़पाया जा रहा था। उन दोनों को खाने के नाम पर झन्नाटेदार कोड़े और पीने के नाम पर पेशाब दिया जाता था। कुछ दिनों बाद उनकी पत्नी ने पेड़ पर कीलों से लटकते-लटकते ही जान दे दी। इतिहासकारों के अनुसार क्रांतिवीर उदमी राम ने 35 दिन तक जीवन के साथ जंग लड़ी और 35वें दिन भारत माँ का यह लाल इस देश व देशवासियों को हमेशा-हमेशा के लिए आजीवन ऋणी बनाकर चिन-निद्रा में सो गया।
उदमी राम की शहादत के बाद अंगे्रजी सरकार ने उनके पार्थिव शरीर का भी बहुत बुरा हाल किया और कोल्हू के नीचे रौंदकर सड़क पर बहा दिया। क्रांतिवीर उदमी राम की स्मृति में एक स्मृति-स्तम्भ सोनीपत के ही ताऊ देवीलाल पार्क में बनाया गया है।
उदमी राम के पैतृक गाँव लिबासपुर को गद्दार को ईनाम दे दिया गया
अंग्रेजों का दिल इतने भयंकर दमन व अत्याचार के बावजूद नहीं भरा। अंग्रेजी सरकार ने अपने मुखबिर सीताराम को पूरा लिबासपुर गाँव मात्र 900 रूपये में निलाम कर दिया। सबसे बड़ी विडम्बना की बात तो यह है कि आजादी के छह दशक बाद भी आज लिबासपुर गाँव की मल्कियत सीताराम के वंशजों के नाम ही है और शहीद उदमीराम एवं उसके क्रांतिकारी शहीदों के वंशज आज भी अंग्रेजी राज की भांति अपनी ही जमीन पर मुजाहरा करके गुजारा कर रहे हैं। लिबासपुर के ग्रामीण अपनी जमीन वापिस पाने के लिए दशकों से कोर्ट-कचहरी के चक्कर काट रहे हैं, लेकिन उन्हें अभी तक न्याय नहीं मिला है। यदि शहीद उदमी राम की शहादत पर सच्ची श्रद्धांजलि देनी है तो लिबासपुर को शहीद गाँव और शहीदों के वंशजों को शहीद-परिवार का सम्मान एवं उसका लाभ देना ही होगा। इसके साथ ही उनकी अपनी जमीन भी वापिस लौटानी होगी। तभी हम सच्चे अर्थों में शहीदों की शहादत को नमन कर सकते हैं।