वीर हरफूल जाट: गौ-रक्षक और गरीबों के मसीहा

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भारतीय इतिहास में कुछ नायक ऐसे हैं जिनकी कहानियाँ साहस, बलिदान और सामाजिक न्याय का प्रतीक हैं। वीर हरफूल जाट, जिन्हें जुलानी वाला और सवा शेर के नाम से जाना जाता है, ऐसे ही एक महान व्यक्तित्व थे। ब्रिटिश औपनिवेशिक काल में गौरक्षा और गरीबों के लिए न्याय के लिए उनके अभूतपूर्व कार्यों ने उन्हें उत्तर भारत का रॉबिनहुड बना दिया।

वीर हरफूल जाट का प्रारंभिक जीवन

जन्म और पारिवारिक पृष्ठभूमि

वीर हरफूल जाट का जन्म 1892 में हरियाणा के भिवानी जिले के लोहारू तहसील के बारवास गांव में एक जाट क्षत्रिय परिवार में हुआ। उनके पिता, चौधरी चतरू राम सिंह, एक साधारण किसान थे, और दादा चौधरी किताराम सिंह थे। जाट समुदाय की योद्धा परंपरा में जन्मे हरफूल ने अपने जीवन में कई चुनौतियों का सामना किया।

बचपन की त्रासदी और संघर्ष

1899 में, सात वर्ष की आयु में, हरफूल ने अपने पिता को प्लेग के कारण खो दिया। इसके बाद, उनका परिवार जींद के जुलानी गांव में बस गया, जिसके कारण उन्हें जुलानी वाला कहा जाने लगा। उनकी माता का पुनर्विवाह उनके देवर रत्ना से हुआ, और हरफूल को उनके मामा के पास संडवा गांव (भिवानी) भेज दिया गया। जब वे लौटे, तो उनके चाचा के बेटों ने पैतृक संपत्ति में हिस्सा देने से इनकार कर दिया। इस अन्याय ने उनके जीवन को बदल दिया। एक झूठी गवाही के आधार पर स्थानीय थानेदार ने उन्हें गिरफ्तार किया और उन पर अत्याचार किए, जिसने उनके मन में विद्रोह की चिंगारी जला दी।

सैन्य सेवा: वीरता का प्रारंभ

प्रथम विश्व युद्ध में योगदान

पारिवारिक कठिनाइयों के बावजूद, हरफूल ने भारतीय सेना में भर्ती होकर 10 वर्ष तक सेवा की। प्रथम विश्व युद्ध (1914-1918) में उन्होंने असाधारण वीरता दिखाई। एक घटना में, उन्होंने एक ब्रिटिश अधिकारी के परिवार को दुश्मनों से बचाया, जिसके लिए उनकी प्रशंसा हुई। इस दौरान उन्होंने अकेले ही हमलावरों को खदेड़ दिया, जिसने उनकी योद्धा छवि को मजबूत किया।

अनोखा उपहार: फोल्डिंग गन

सेना छोड़ते समय, एक ब्रिटिश अधिकारी ने उन्हें उपहार मांगने को कहा। हरफूल ने एक फोल्डिंग गन मांगी, जो बाद में उनके गौरक्षा अभियानों में महत्वपूर्ण साबित हुई।

व्यक्तिगत प्रतिशोध और बागी जीवन

थानेदार से बदला

सेना छोड़ने के बाद, हरफूल ने उस थानेदार को निशाना बनाया, जिसने उन्हें झूठे आरोपों में फंसाया था। स्रोत के अनुसार, उन्होंने इस अन्यायी अधिकारी को “ठोक दिया,” जिससे उनका बागी जीवन शुरू हुआ।

पारिवारिक विवाद

हरफूल ने अपने परिवार से पैतृक जमीन में हिस्सा मांगा, लेकिन उनके चाचा के बेटों (चौधरी कुरड़ाराम को छोड़कर) ने उनका विरोध किया। स्रोत के अनुसार, ये रिश्तेदार उनकी माता की मृत्यु के लिए भी जिम्मेदार थे। हरफूल ने इस अन्याय का जवाब दिया, और यह उनके सामाजिक न्याय के मिशन की शुरुआत थी।

गौरक्षा: “सवा शेर” की उपाधि

टोहाना का पहला बूचड़खाना (23 जुलाई 1930)

टोहाना में मुस्लिम राँघड़ों द्वारा संचालित एक कसाईखाना गायों की हत्या के लिए कुख्यात था। नैन खाप (52 गांवों का समूह) ने इसका विरोध किया, लेकिन ब्रिटिश सरकार के समर्थन और हथियारों की कमी के कारण असफल रही। कई नौजवान शहीद हो गए। नैन खाप ने हरफूल जाट को सहायता के लिए बुलाया। गौहत्या की खबर सुनकर हरफूल ने हथियारों का प्रबंध किया और एक रणनीतिक हमला किया।

रणनीति और साहस

हरफूल ने औरत का भेष धरकर कसाईखाने के सैनिकों का ध्यान भटकाया, जिससे नैन खाप के नौजवानों को हमला करने का मौका मिला। स्रोत के अनुसार, “हरफूल ने ऐसी तबाही मचाई कि बड़े-बड़े कसाई उनके नाम से कांपने लगे।” उन्होंने सैकड़ों राँघड़ों को मार गिराया और गायों को मुक्त करवाया। यह ब्रिटिश काल में बूचड़खाना तोड़ने की पहली दर्ज घटना थी।

“सवा शेर” की उपाधि

इस साहसिक कार्य के लिए नैन खाप ने उन्हें “सवा शेर” की उपाधि और पगड़ी भेंट की। इसके बाद, हरफूल ने जींद, नरवाना, गौहाना, और रोहतक में 17 बूचड़खाने तोड़े। उनका नाम उत्तर भारत में एक किंवदंती बन गया, और कसाई उनके नाम से थर्राने लगे। ब्रिटिश पुलिस उनके पीछे पड़ गई, लेकिन स्थानीय लोगों ने उनकी जानकारी नहीं दी।

गरीबों का मसीहा: “चलती फिरती कोर्ट”

हरफूल केवल गौरक्षा तक सीमित नहीं रहे। वे “चलती फिरती कोर्ट” के रूप में प्रसिद्ध थे, जो गरीबों और महिलाओं के साथ होने वाले अन्याय के खिलाफ तुरंत न्याय प्रदान करते थे। उनके कई किस्से लोकप्रिय हैं, जो उनकी सामाजिक प्रतिबद्धता को दर्शाते हैं।

गिरफ्तारी और बलिदान

विश्वासघात और गिरफ्तारी

अंग्रेजों ने हरफूल पर इनाम रखा। वे अपनी ब्राह्मण धर्म-बहन के पास झुंझुनू (राजस्थान) के पंचेरी कलां में शरण लेने गए। लेकिन एक ठाकुर दोस्त ने इनाम के लालच में उनकी जानकारी अंग्रेजों को दे दी। हरफूल को सोते समय गिरफ्तार कर लिया गया।

जेल और फांसी

उन्हें पहले जींद जेल में रखा गया, लेकिन हिंदुओं के विद्रोह और सुरंग खोदने के प्रयासों के कारण, उन्हें फिरोजपुर जेल में स्थानांतरित किया गया। 27 जुलाई 1936 को, अंग्रेजों ने उन्हें रात में चुपके से फांसी दे दी और उनके शरीर को सतलुज नदी में बहा दिया।

वीर हरफूल जाट की विरासत

महान उपाधियाँ

हरफूल को “देश के सबसे बड़े गौरक्षक”, “गरीबों का मसीहा”, और “उत्तर भारत का रॉबिनहुड” कहा जाता है। उन्होंने अपना जीवन गौमाता और कमजोर वर्गों के लिए समर्पित किया।

निष्कर्ष

दुखद रूप से, उनकी विरासत को आज भुला दिया गया है। स्रोत के अनुसार, “कई गौरक्षक संगठन और गौशालाएँ भी उनकी स्मृति को नहीं मनाते।” वीर हरफूल जाट की कहानी एक साधारण जाट किसान से महान गौरक्षक और सामाजिक योद्धा बनने का प्रेरक सफर है। टोहाना से लेकर उत्तर भारत के 17 बूचड़खानों को तोड़ने तक, और गरीबों के लिए न्याय दिलाने तक, उनकी गाथा साहस और बलिदान की मिसाल है। उनकी “सवा शेर” उपाधि और “चलती फिरती कोर्ट” की छवि हमें प्रेरित करती है। हमें उनकी विरासत को पुनर्जनन करने और गौशालाओं, स्कूलों, और सामाजिक मंचों पर उनकी स्मृति को जीवित रखने की आवश्यकता है।

श्रद्धांजलि: जय हरफूल, जय गौमाता, जय भवानी!

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