जाटों का इतिहास राजाराम जाट के बिना अधूरा है. महाराजा सूरजमल ने जो जाटों को सम्मान दिलाया उसकी नींव राजाराम जाट ने ही डाली थी. राजाराम जाट की वीरता की कई कहानियां प्रसिद्ध हैं. उन्हीं में से यह घटना भी है, जिसने राजाराम की ख्याति को दूर दूर तक फैला दिया और मुगलों को दिखा दिया कि जाटों का खौफ क्या होता है.
उन दिनों की बात है, जब औरंगजेब दक्षिण में था, और उसकी सेना के लिए दिल्ली से रसद और युद्ध सामग्री के काफ़िले जाया करते थे। इन काफ़िलों के साथ रक्षा के लिए सशस्त्र सैनिक रहते थे। परन्तु समझा यह जाता था कि शाही सामान के साथ कोई छेड़खानी नहीं करेगा। छेड़खानी का मतलब था विद्रोह और विद्रोह की सजा थी मृत्यु।
जाटों का इलाका बल्लभगढ़ से शुरू हो जाता था और कोसी, मथुरा, आगरा और धौलपुर के पास चम्बल तक चला गया था। राजाराम के जाट गिरोह वल्लभगढ़ से ही इन काफ़िलों के पीछे लग जाते और आक्रमण का ऐसा मौका ढूंढते रहते, जिसमें वे कम से कम हानि उठा कर अधिक से अधिक लाभ प्राप्त कर सकें। ये लड़ना नहीं चाहते थे; केवल लूटना उनका उद्देश्य था। यह मौका देर सबेर में उन्हें मिल ही जाता था। धन से अधिक उनकी आंख हथियारों पर रहती थी।
एक बार की बात है कि एक तूरानी मुगल सरदार अगहर खां दिल्ली से दक्षिण की ओर रवाना हुआ। उसे औरंगजेब ने विशेष रूप से बुलाया था। अगहर खां सीधा काबुल से दिल्ली आया था। उसने कई लड़ाइयों में विजय प्राप्त की थी और उसकी गणना उस काल के प्रसिद्ध योद्धाओं में होती थी। प्रस्थान से पहले उसे रास्ते में जाटों के हमलों से सावधान रहने के लिए कहा गया था, परन्तु उसने उसे गौण बात समझा और उस पर विशेष ध्यान नहीं दिया।
अगहर खां का काफिला बहुत बड़ा नहीं, तो छोटा भी नहीं था। डेढ़ सौ पुड़सवार और तीन सौ पैदल सैनिक थे। एक हाथी, पच्चीस ऊंट, डेढ़ सौ बैलगाड़ियां और पांच पालकियां थीं, जिनमें उसके परिवार की महिलाएं जा रही थीं। नौकर-चाकरों की खासी भीड़ थी।
गरमियों के दिन थे काफिला मुंह अंधेरे उठ कर चल पड़ता, दोपहर होने से पहले ही कहीं छाया और पानी देख कर पड़ाव डाल देता। यहां स्नान, भोजन और विश्राम होता। तीसरे पहर दिन ढले यात्रा फिर शुरू होती और अंधेरा होने के बाद भी जारी रहती। तारे दीखने लगते, तब पड़ाव डाला जाता प्रकाश में लाये जाते भोजन बनता। थोड़ा गाना बजाना भी होता
राजा के गिरोह ने आगो से ही इस काफिले पर घात लगानी शुरू की ये कि गिरोह को तीन दिन तक का मौका नहीं मिला। चौथे दिन जब काफिला धौलपुर से कुछ किलोमीटर दूर रह गया था, तब सांझ के समय गिरोह के जाट काफ़िले के पृष्ठ भाग पर टूट पड़े। बहुत से हथियार, पोड़े और खजाना छीन कर वे भाग खड़े हुए। सबसे चुभने वाली बात यह हुई कि वे पालकियों में से निकाल कर दो स्त्रियों को भी घोड़ों पर बिठा कर ले गये।
काफिले के पृष्ठ भाग से अगले भाग तक ख़बर पहुंचने में कुछ देर लगी। सुन कर अगहर खां गुस्से से पागल हो गया। हाथी से उतर कर वह घोड़े पर सवार हुआ। अस्सी सैनिकों को उसने साथ लिया। इनमें उसका दामाद भी था। उसने साथ चलने का आग्रह किया, क्योंकि जिन दो स्त्रियों का अपहरण किया गया था, उनमें एक उसकी पत्नी थी। बाकी सैनिकों को काफ़िले की रक्षा के लिए छोड़ कर अगहर खां लुटेरों को दंड देने के लिए चला।
एक बूढ़े सिपाही ने अगहर खां को समझाने की कोशिश की – “इस बीहड़ बियाबान में आप कहां डाकुओं का पीछा करने जाते हैं? जो छिन गया, उसे भूल जाइये। जो बच गया है, उसकी फिक्र कीजिये और उसे लेकर दक्षिण की ओर बढ़िये।”
अगहर खां ने तिरस्कार की दृष्टि से उसकी ओर देखा और कहा: “मेरे काफ़िले को लुटेरे लूट लें और मैं आगे बढ़ जाऊं? हरगिज़ नहीं। मैं लुटेरों को ऐसी सजा दूंगा कि वे पीढ़ी दर पीढ़ी याद रखेंगे।”
इस पर बूढे सिपाही ने सलाह दी, “तो कुछ ज़्यादा सिपाही साथ ले कर जाना ठीक रहता। पता नहीं, जंगल में कितने दुश्मन छिपे हों।”
लेकिन क्रोध मे चूर अगहर खाँ ने सिपाही की एक न सुनी। उसने चीख कर कहा, “कोई परवाह नहीं। एक मुगल सो हिन्दुस्तानियों के बराबर होता है। मैं उनकी बोटी बोटी काट डालूंगा”। कहकर अगहर खाँ जाटों के पीछे लपक पड़ा।
जाटों का काफिला दूर नहीं गया था। कुछ ही देर में दीखने लगा। पीछा करने वाले मुगलों को आते देख कर उन्होंने अपने भागने की चाल तेज कर दी। परन्तु अगहर खां के सवारों की चाल उनसे अधिक तेज़ थी और वे जोश से भरे थे। कुछ ही देर में उन्होंने जाटों को घेर लिया।
राजाराम ने चिल्ला कर कहा “हमें तुम्हारा माल चाहिए, जान नहीं। कुशल चाहते हो, तो यहीं से वापस लौट जाओ ।”
“शाही माल को लूट कर तुमने अपनी गीत को बुलाया है। अब तुम यहां से बच कर नहीं जा सकते। हथियार डाल दो”, अगहर ख़ां ने कहा।
इसके उत्तर में जाटों गोलियां चलानी शुरू कर दीं और लड़ाई छिड़ गई। सामने तो जाट थोड़े ही दीख रहे थे, पर गोलीबारी की आवाज सुन कर दायें बायें जंगल में से निकल कर सैकड़ों घुड़सवार जाट और आ गये। उन्होंने अगहर ख़ां का पीछे लौटने का रास्ता भी बन्द कर दिया। बीस एक मिनट जम कर लड़ाई हुई। अगहर ख़ां और उसका दामाद, दोनों ही धराशायी हुए। उनका एक भी सैनिक बच कर वापस नहीं लौट पाया। लौट पाता, तो दुश्मन को जाटों के ठिकाने का पता चल जाता ।
अगहर ख़ां के बाकी काफ़िले ने कई घंटे उसके लौटने की प्रतीक्षा की। जब वह नहीं लौटा, तब बचा हुआ काफ़िला बदहवास होकर धौलपुर की ओर बढ़ गया।