राजा सूरजमल अत्यन्त ही न्याय प्रिय थे। वे भरसक प्रयास करते थे कि उनके द्वारा कोई अन्याय न हो जाये। वह अहंकार में किसी प्रकार की परम्परा को तोड़ने में विश्वास नहीं करते थे। कई लोगों के सुझाव देने के उपरान्त भी उन्होंने अपने राज्य में बनी मस्जिदों को नहीं ढहाया था। उनका कहना था कि इस बात की कोई गारण्टी नहीं है कि उनके द्वारा मस्जिदों को तोड़ने के बाद उनके राज्य अथवा दूसरे राज्यों में बदले में हिन्दुओं के मन्दिरों को नहीं तोड़ा जायेगा।
दीवाने आम की छत तोड़ने को लेकर भाऊ से हुआ था विवाद
मराठा-अब्दाली युद्ध के अवसर पर मराठा सरदार सदाशिव राव भाऊ द्वारा लाल किले के दीवाने आम की छत पर लगी चांदी को तोड़ने और अब्दाली से युद्ध के तरीके पर भाऊ और सूरजमल के बीच विरोधाभास हो गया था। (स्रोत : पूर्व विदेश मंत्री श्री नटवर सिंह लिखित पुस्तक महाराजा सूरजमल) भाऊ दीवाने आम की छत पर हुई शानदार पच्चीकारी में लगी चांदी को तोड़कर अपनी सेना का वेतन देना चाहता था । इस पर सूरजमल और भाऊ में विवाद हो गया। सूरजमल ने भाऊ को दीवाने आम की छत को तोड़ने से रोकते हुए उसके सम्मुख प्रस्ताव रखा था कि यदि भाऊ चाहें तो वह उसको पांच लाख रुपया दे सकता है, लेकिन शर्त यह है कि उसे दीवाने आम की छत का तोड़ने का विचार छोड़ना होगा। भाऊ ने इसे अपना अपमान समझा और उसने भरी सभा में सूरजमल का अपमान किया और उसने सूरजमल को कैद करने के प्रयत्न भी किया।
भाऊ द्वारा सूरजमल का प्रस्ताव न मानने का परिणाम यह निकला कि भाऊ ने दीवाने आम की छत की चांदी तोड़ी और वह अब्दाली से युद्ध में हार गया। भाऊ द्वारा अपमान किये जाने के उपरान्त भी सूरजमल ने पानीपत के युद्ध से भागे हुए घायल मराठा सैनिकों से इसका बदला लेने का विचार तक नहीं किया। वरन् जैसे ही वे सैनिक उसके राज्य की सीमा में आये, उसने उन्हें मथुरा, डीग, कुम्हेर, भरतपुर के किलों में आश्रय दिया, घायलों का उपचार कराया और उनको उनके घरों तक पहुंचाने की व्यवस्था भी की।
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जब मराठा सेना सन् 1757-59 में रघुनाथ दादा और दत्ताजी सिन्धिया के नेतृत्व में उत्तर भारत में वापिस आयी, तब सूरजमल ने शान्त रहने में बुद्धिमत्ता समझी। दबाव में आकर उन्होंने मराठा सेनापति को केवल कुछ हजार सैनिक दिये। सन् 1757 से 1760 तक उन्हें अब्दाली द्वारा बार-बार धमकी दी जाती रही थी कि यदि वह उसको बड़ी धन राशि नहीं देगा, तो वह सूरजमल पर आक्रमण कर उसका सर्वनाश कर देेगा। दूसरी ओर मराठा उन पर दबाव डालते थे कि देहली को छिन्न-भिन्न करने में वह उनकी सहायता करें। महाराजा सूरजमल समझते थे कि यदि उन्होंने ऐसा किया, तो उत्तर भारत के सब मुसलमान और राजपूत शासक उनके विरोधी बन जायेंगे। उस स्थिति में अब्दाली फिर भारत पर आक्रमण करेगा और उसका सर्वप्रथम प्रहार उसी पर होगा, और इस आक्रमण में मुगल सत्ता भी उसके विरोध में खड़ी होगी।
कृष्ण भक्त थे महाराजा सूरजमल
महाराजा सूरजमल ने लगभग 80 बड़े युद्ध लड़े और वह प्रत्येक युद्ध में विजेता रहे। वह एक वीर योद्धा होने के उपरान्त भी सरल और धार्मिक विचारों के थे। विनयशीलता उनका विशिष्ट गुण था। अहंकार उनको छू तक न गया था। श्री लक्ष्मण जी उनके इष्टदेव थे। राम कृष्ण महन्त उनके गुरू थे। मथुरेश तथा गोकुलाधीश के प्रति उनकी अटूट श्रद्धा थी। उन्होंने बरसाना-गोवर्धन, मथुरा, वृन्दावन तथा ब्रज के अन्य-अन्य स्थानों पर अनेक मंदिर, कुज तथा ताल बनवाये थे। वह बड़ों का सत्कार तथा ब्राह्मणों का आदर करते थे। पंडित कालूराम उनके कुल पुरोहित थे । उन्होंने अपने राज्य में दान का एक पृथक विभाग खोल दिया था। नरोत्तम चतुर्वेदी के पुत्र सोमनाथ इस विभाग के अध्यक्ष थे।
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