जाट प्लेटो महाराजा सूरजमल

Please Share!

जाट प्लेटो महाराजा सूरजमल महान देशप्रेमी और कठिनाई के अवसरों पर राजनीतिक विषयों का सूक्ष्म विश्लेषण करने में बड़े ही चतुर थे। उस समय नजीब के अतिरिक्त अन्य किसी में उन जैसा राजनीतिक बुद्धि चातुर्य नहीं था। यह वह समय था जब मुगल साम्राज्य का पतन होता जा रहा था। उस स्थिति में जाटों के प्लेटो कहे जाने वाले सूरजमल ने स्वयं को प्रभावशाली बनाया। हिन्दुस्तान में कोई अन्य सरदार उनके समकक्ष प्रभावशाली नहीं था। अहमदशाह अब्दाली के आक्रमण, जो 1757 व 1760-61 में हुए थे, के अवसरों पर उन्होंने बड़ी चतुराई से अपने साम्राज्य तथा अपनी प्रजा की उससे रक्षा की। भारत के सभी नरेश, कोई कम और कोई अधिक, अब्दाली के हमलों से प्रायः त्रस्त व नष्ट हो चुके थे। किन्तु सूरजमल का राज्य तथा सेना पूर्णरूपेण ज्यों की त्यों सुरक्षित थी। उनका प्रत्येक किला अति शक्तिशाली था। उन्होंने कुम्हेर के घेरे में मराठों और शाही शक्ति को बड़ी चतुराई से परास्त किया था। वास्तव में उनके दिमाग में सूझ-बूझ का विशाल भंडार भरा पड़ा था। वह षड्यंत्र और राजनीति में पाखंडी मुगल व चालबाज मराठों को हर कदम पर मात देते रहे थे। इतिहासकार कानूनगो लिखता है कि सूरजमल उस चतुर पक्षी के समान था, जो प्रत्येक जाल से दाना चुगकर सही सलामत निकल आता है।

प्रबल राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत जाट प्लेटो महाराजा सूरजमल

सूरजमल में राष्ट्रीय भावनाएं सदैव प्रबल रहीं। अहमदशाद अब्दाली महाराजा सूरजमल को अपने पक्ष में मिलाना चाहता था, किन्तु उन्होंने अब्दाली का पक्ष ग्रहण नहीं किया, क्योंकि अब्दाली राष्ट्र को बर्बाद करना चाहता था। सन् 1760-61 में जब अहमदशाह अब्दाली ने भारत पर दूसरा आक्रमण किया, तो मराठों ने उसके साथ युद्ध में सूरजमल को भी आमन्त्रित किया। उन्होंने मराठों को सहायता का वचन राष्ट्रीय भावनाओं से प्रेरित होकर ही दिया था। किन्तु जब मराठों द्वारा अपनी सेना को तीन महीने का वेतन देने के लिए लाल किले स्थित दीवाने आम की छत पर लगी चांदी को तोड़ने का प्रश्न आया, तो सूरजमल ने मराठों के इस फैसले का विरोध किया था और मराठों को अपने कोष से मराठा सेना का वेतन देने का प्रस्ताव रखा, तो मराठा सरदार को सूरजमल का यह प्रस्ताव पसन्द नहीं आया और वह सूरजमल पर क्रुद्ध हो गया और उसने न केवल सूरजमल का अपमान ही किया, अपितु उसने उनको गिरफ्तार करने का असफल प्रयास भी किया।

मानवता प्रेमी राजा सूरजमल

महाराजा सूरजमल मानवता प्रेमी थे। वे किसी से न तो ईर्ष्या करते थे और न ही वह किसी के प्रति कोई दुर्भावना ही रखता थे। मराठा-अब्दाली युद्ध, (पानीपत की तीसरी लड़ाई के नाम से प्रसिद्ध) में पराजित होने पर सूरजमल के राज्य से होकर गुजरने वाले घायल और त्रस्त मराठा सैनिकों की सहायता भी महाराजा सूरजमल ने राष्ट्रीय भावना से प्रेरित होकर ही की थी। जब अब्दाली के डर से मराठे मथुरा को अनाथ छोड़कर भाग गये थे, तो महाराजा सूरजमल के पुत्र जवाहरसिंह ने मथुरा की रक्षा के लिए अब्दाली के आक्रमण का मुकाबला किया था। उत्तर भारत के किसी अन्य हिन्दू राजा ने इस प्रकार की राष्ट्रीय भावनाओं का प्रदर्शन कभी नहीं किया।
पितृ-प्रेमी सूरजमल के हृदय में माता-पिता के लिए विशेष प्रेम था। पिता की आज्ञा और आशीर्वाद लेकर ही वह किसी युद्ध के लिए प्रस्थान करते। वहाँ से लौटने पर भी वह पिता के चरणों के दर्शन अवश्य करते थे। युद्ध का बयान सुनाकर पिता का मनोरंजन भी करते थे और फिर अपने निवास स्थान को जाते थे। जब सूरजमल ईश्वरी सिंह की सहायता के लिए  प्रस्थान करते हैं, तो उससे पूर्व वह पिता के चरण स्पर्श करने उपस्थित होता है. सुजान चरित्र में कवि सूदन ने उल्लेख किया है-
‘‘यह सुनि कें सूजा पितु पग पूजा हरशानी सब देह।’’
भू-कर अथवा जमीदारी का प्रबन्ध वह सुनियोजित ढंग से करते थे। उन्होंने अपने प्रदेश की मालगुजारी खूब बढ़ायी थी। भूमिकर प्रबन्ध में उस समय आसफजहाँ निजाम के अलावा उनके समान चतुर नरेश कोई नहीं था। मालगुजारी के कार्य को वह स्वयं देखते थे। वह बहुत ही मितव्ययी थे। जेसुइट पादरी ने लिखा है कि सूरजमल आवश्यकता से अधिक कृपण था।

यह भी पढ़ें : पंथनिरपेक्ष थे महाराजा सूरजमल 

सुजान चरित्र में कई स्थानों पर सूरजमल ने उपदेशात्मक रूप में अपने पुत्र को सलाह दी है, ‘‘घर में जमा रहे तो खातिर जमा रहे।’’ उनकी वार्षिक आमदनी लगभग एक करोड़ पिचहत्तर लाख रुपये थी और सेना सहित साल का कुल खर्च था पेंसठ लाख रुपये। वह स्वयं को सम्राट के स्थान पर जमीदार कहलाने में बड़ा गर्व अनुभव करते थे।
जाटों के प्लेटो महाराजा सूरजमल जानते थे कि जीते हुए इलाकों की आमदनी किस प्रकार बढ़ायी जाती है और शान्ति की रक्षा किस प्रकार की जाती है। सबसे बड़ी बात यह थी कि उनके अंत समय तक उनके राज्य में सर्वत्र शान्ति थी। सम्पूर्ण राज्य में अच्छी खेती होती थी और बाहरी आक्रमण का भय नहीं था। प्रजा सुखी और धनी थी। उन्होंने अपने जाट भाईयों के द्वारा ही यह राज्य जीता था। उनके यहाँ एक भी विदेशी सिपाही नहीं था। उनके भाई खेती करते थे और अपने देश की रक्षा करने में भी दक्ष थे। उन्होंने उनको कुशल योद्धा बना दिया था। उनके सभी सैनिक भाई सैनिक सेवा के बाद अपने खेतों पर काम करने के लिए अपने गांवों में चले जाया करते थे। अपने देश की रक्षा करते समय वे जितने वीर सैनिक थे खेती में उतने ही परिश्रमी किसान भी थे।

जाट जाति के चमकते हुए नक्षत्र सूरजमल

महाराजा सूरजमल की मृत्यु 25 दिसम्बर 1764 को, पचपन वर्ष की उम्र में, अपने गौरव के सर्वोच्च शिखर पर पहुंच कर हुई। सूरजमल जाट जाति के चमकते हुए नक्षत्र थे। भारत के पिछले 500 वर्ष के इतिहास में उनके समान कोई भी पराक्रमी नरेश पैदा नहीं हुआ था। उनके चकाचौंध भरे व्यक्तित्व, विराट अनुभव तथा अनूठी प्रतिभा का अठारहवीं सदी के सभी इतिहासकारों ने सम्मान किया है। वह जाट जाति के प्लूटो थे। वह बुद्धिमान, कूटनीतिज्ञ, शूरवीर, शिष्ट और सभ्य थे। बाहर के नरेश उनकी प्रशंसा करते थे और साथ ही उनसे डरते भी थे। जब उनका उदय हुआ, तब जाट लोग सम्पन्न थे लेकिन उनकी ख्याति केवल लूट के लिए थी। परन्तु उनकी मृत्यु के समय जाट शक्तिशाली थे और सारे हिन्दुस्तान में उनकी कीर्ति थी। उनके समय जाटों की कीर्ति सर्वोच्च शिखर पर पहुंच गयी थी।

One thought on “जाट प्लेटो महाराजा सूरजमल

Comments are closed.