30 जून 1978 को चौ0 चरण सिंह ने प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई द्वारा माँगे जाने पर केन्द्रीय गृहमंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया और 22 दिसम्बर को 1978 को उन्होंने संसद में अपने इस्तीफा देने के कारणों को स्पष्ट किया। उनके उत्तर से स्पष्ट पता चलता है कि किस प्रकार मोरारजी देसाई ने अपनी हठधर्मिता के चलते जनता पार्टी को पतन के रास्ते पर डाला। प्रस्तुत है चौ. चरण सिंह का पूरा वक्तव्य-
“अध्यक्ष महोदय, मेरा मंत्रीमण्डल से इस्तीफा माँगना एक सामान्य घटना नहीं थी। यह मेरा अपमान करना था। 24 अप्रैल को मैं इलाज के लिए अस्पताल में भर्ती हुआ। 9 जून को आराम करने सूरजकुण्ड चला गया। 29 जून को मेरा इस्तीफा माँगा गया। पत्र की भाषा ऐसी थी जैसे मालिक नौकर को लिखता है। अगले दिन मैंने उनकी (प्रधानमंत्री) इच्छानुसार अपना इस्तीफा भेज दिया। मोरारजी भाई ने अपने पत्र में लिखा था कि श्रीमती गांधी के विरुद्ध कदम उठाने की जिम्मेदारी गृह मन्त्रलय की है, जिसके आप अध्यक्ष हैं। आपने अपने पत्र में श्रीमती गाँधी की तत्काल गिरफ्तारी की माँग का जिक्र किया है, किन्तु मन्त्रीमण्डल को इस सम्बन्ध में कोई प्रस्ताव नहीं दिया था। इसलिए उसे स्वीकार करने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता।
मैंने सूरजकुण्ड में ही राम जेठमलानी जैसे विधि विशेषज्ञ को बुलाकर चर्चा की थी कि विशेष अदालत या ऐसी ही कोई विशेष व्यवस्था के अन्तर्गत श्रीमती गाँधी पर मुकदमा चलाया जा सकता है या नहीं? जेठमलानी ने 12 जून को एक पत्र विधि मंत्री शांति भूषण को लिखा था, जिसमें उन्होंने एक अध्यादेश की बात लिखी थी। उन्होंने अध्यादेश का मसविदा भी भेजा था। जेठमलानी के पत्र के अनुसार प्रधानमंत्री के लौटने पर अध्यादेश जारी किया जा सकता था, जिससे हमारी विश्वसनीयता को सहारा मिलता।
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15 जून को मंत्रीमण्डलीय सचिव, गृह सचिव तथा कार्मिक सचिव )जो केन्द्रीय जाँच ब्यूरो का भी कार्य देखते हैं) ने सूरजकुण्ड में ही मुझसे श्रीमती गाँधी के मुकदमे सम्बन्धी बातचीत की। मैंने उन्हें स्पष्ट रूप से बताया कि मैं विशेष अदालतों के पक्ष में हूँ, अन्यथा उनके मुकदमे में वर्षों लग सकते हैं, परन्तु इस पर विधि मन्त्री और प्रधान मन्त्री की राय भिन्न थी।
प्रधान मंत्री ने अपनी अमेरिका यात्र से लौटकर प्रेस कान्फ्रेन्स में )टाइम्स ऑफ इण्डिया, 18 जून) कहा कि वह पिछली अवधि से दण्ड व्यवस्था के पक्ष में नहीं हैं। जो भी होगा, वर्तमान कानून के अन्तर्गत होगा। पिछली अवधि से कानून नहीं बनाया जा सकता, जनता ने श्रीमती गाँधी को दण्ड दे दिया है, भविष्य में भी उन्हें दण्डित किया जा सकता है। लोग भूल नहीं सकते कि उन्होंने क्या किया था। आपात्काल को बुरा स्वप्न समझकर भूल जाना चाहिए आदि-आदि।
25 जून के इण्डियन एक्सप्रेस में छपा कि सरकार के फैसले के अनुसार श्रीमती गाँधी पर साधारण अदालत में ही मुकदमा चलाया जाए। कोई विशेष अदालत नहीं होगी। यद्यपि यह समझा जा रहा है कि इस प्रकार मुकदमे में बरसों लग सकते हैं। 27 जून के यूएनआई के समाचार में कहा गया था कि प्रधान मंत्री वर्तमान कानून के अनुसार ही कदम उठाना चाहते हैं।
इन सबके प्रकाश में मैंने 28 जून को एक प्रेस भेंट में स्थिति स्पष्ट करने का विचार किया। मैंने उसमें भूतपूर्व प्रधान मंत्री के विरुद्ध सख्त और द्रुत कार्यवाही का मत प्रकट किया था। मैंने यह भी कहा था कि मुझसे सहमत न होने वालों को मालूम नहीं है कि जनता में श्रीमती गाँधी को जेल न भेजने पर, सरकार की असफलता पर कितना रोष है? वे इससे अनेक प्रकार की अटकलें लगाने लगे हैं। उनका विचार तो यह है कि सरकार में काम करने वाले हम लोग नपुंसकों का समूह है, जो देश पर शासन नहीं कर सकते। कुछ लोग तो श्रीमती गाँधी को ‘मीसा’ में ही बन्द करना चाहते हैं। मैंने यह सख्त कदम ठीक नहीं माना। पर लोगों की भावना यही थी, क्योंकि उन्होंने आपात्काल में मुसीबतें झेलीं थीं। देश की तमाम जनता ने श्रीमती गाँधी को शाह आयोग के प्रति ढिठाई करते और उनके द्वारा लोकतंत्री व्यवस्था को खत्म करते हुए देखा था।
आचार्य कृपलानी भी इसी प्रकार सोच रहे थे। यह उनके 27 जून के पत्र से प्रकट होता है। (चौधरी साहब ने अपने बयान में उस पत्र का विवरण भी पढ़ा) पर यह पत्र मुझे अपने इस्तीफे के एक सप्ताह बाद मिला।
प्रधान मंत्री ने अपने 29 जून के पत्र में ‘सामूहिक उत्तरदायित्व’ की बात कही है। परन्तु इससे मंत्रियों पर जनता में अपने भिन्न विचार रखने का कोई बंधन नहीं लगता। इसीलिए श्रीमती गाँधी के मुकदमे की चर्चाओं को देखते हुए उसके सम्बन्ध में सार्वजनिक रूप से अपनी राय देकर मैंने कोई गलत काम नहीं किया था। अनेक ब्रिटिश संसदीय उदाहरण मौजूद हैं, जिनसे स्पष्ट है कि आमतौर पर सामूहिक उत्तरदायित्व के सिद्धान्त को धक्का नहीं पहुँचता, क्योंकि किसी मामले पर अपना भिन्न विचार प्रकट कर देना असाधारण बात नहीं है। जनता पार्टी पूरी तरह से एकीकृत पार्टी नहीं बन सकी थी। वह अभी तक अनेक महत्वपूर्ण मामलों पर आमतौर पर समान राय से ही काम कर रही थी।
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क्या सामूहिक उत्तरदायित्व का यह सिद्धांत केवल मंत्रियों पर लागू होता है, प्रधान मंत्री पर नहीं? प्रधान मंत्री अपने को सभी नियमों व परम्पराओं से ऊपर समझें और मन्त्रियों पर अनुशासन के नियम लागू हों-यह सोच गलत है। प्रधानमन्त्री तो बराबर वाले समान व्यक्तियों में सिर्फ प्रथम है। ऐसी स्थिति में सामूहिक उत्तरदायित्व का सिद्धान्त उन पर भी लागू होता है।
1977 में प्रधान मन्त्री ने आणविक नीति पर बयान दिया था कि देश शांतिपूर्ण कार्यों के लिए भी आणविक शक्ति का विकास या इस्तेमाल नहीं करेगा। यह सरकार की उस समय तक की नीति के विपरीत था। यह मामला कभी भी मन्त्रीमण्डल की बैठक में नहीं आया था। श्री देसाई ने ऐसी हालत में इस प्रकार का बयान क्यों दिया? फिर उन्होंने सिक्किम के भारत में विलय के सम्बन्ध में जो बयान दिया, वह तथ्यों की दृष्टि से गलत था और कभी मन्त्रीमण्डल के सामने यह प्रश्न आया भी नहीं था। इस बयान से हमारी जग-हँसाई हुई। उन्होंने गोवा की मुक्ति के बारे में भी अपनी इसी प्रकार की राय दी, जिसे मन्त्रीमण्डल में विचार के लिए नहीं रखा गया था। प्रधान मन्त्री ने इसे अपनी निजी राय कहा, परन्तु सार्वजनिक महत्व के प्रश्नों पर उनकी राय ‘निजी’ नहीं कही जा सकती। इसे तो स्पष्टतः सरकारी राय कहा जाएगा। किसी अन्य देश में तो संसद उस प्रधान मन्त्री को इस्तीफा देने को मजबूर कर देती। भारत देश एकदम भिन्न है।
केन्द्र-राज्य सम्बन्ध गृह मन्त्रलय के अन्तर्गत हैं, परन्तु प्रधान मन्त्री ने इस प्रश्न पर विचार करने के लिए अनेक मुख्य मन्त्रियों के आग्रह पर भी मुझ से सलाह किए बिना ही कह दिया कि ऐसा सम्मेलन नहीं बुलाया जाएगा, क्योंकि उसकी जरूरत नहीं है।
इसी प्रकार कानून और व्यवस्था वैसे तो राज्यों का विषय है, परन्तु कुछ मामलों में केन्द्र भी कदम उठाता है। महाराष्ट्र की घटनाओं पर प्रधान मन्त्री ने मुझसे सलाह किए बिना वहाँ के मुख्यमन्त्री को पत्र लिख दिया और बाद में भी मुझे नहीं बताया। ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जिनसे प्रमाणित होता है कि प्रधानमन्त्री ने स्वयं ही मन्त्री मण्डल की उपेक्षा की, फिर मुझ पर सामूहिक उत्तरदायित्व को तोड़ने का आरोप लगाना उन्हें शोभा नहीं देता।
जब गृह सचिव आदि से सूरजकुण्ड में श्रीमती गाँधी के मुकदमे, विशेष अदालत आदि के प्रसंग में बातचीत हुई थी, तो गृह सचिव ने उसका नोट तैयार किया था। मेरी अस्वस्थता में मन्त्री मण्डल के अन्य सदस्यों अथवा प्रधान मन्त्री को क्यों नहीं बताया था, यह मेरी समझ से बाहर की बात है। यह बात मुझे इस्तीफा देने के बाद पता चली। इसलिए पहले मैं उस पर कैसे कार्यवाही करता? यदि मैंने इस सम्बन्ध में कोई प्रस्ताव नहीं भेजा, तो प्रधान मन्त्री स्वयं सूरजकुण्ड नहीं पहुँच सकते थे या वे मेरे पास तक जाना अपनी प्रतिष्ठा से नीचे समझते थे। उन्हें सार्वजनिक स्थानों पर श्रीमती गाँधी के मुकदमे के बारे में कुछ नहीं कहना चाहिए था। स्पष्ट है कि प्रधानमन्त्री समझते हैं कि वे कुछ भी करने को स्वतन्त्र हैं। किंतु मैं ऐसा नहीं समझता। उन्हें हर मामले को मंत्रीमण्डल में विचार के लिए रखना चाहिए था। सदन को याद रखना चाहिए कि प्रधानमन्त्री आमतौर पर ‘मैं’ कहते हैं, ‘हम’ या ‘सरकार’ अथवा ‘मन्त्रीमण्डल’ नहीं।
इस सम्बन्ध में भी अब स्पष्ट हो गया है कि विशेष अदालतों वाले मेरे विचार ही सही सिद्ध हुए। प्रधानमन्त्री वो सब कुछ कह रहे हैं, जो उन्होंने जून में न कहने-करने को कहा था। ऐसे प्रधानमन्त्री के बारे में इतिहास क्या कहेगा, यह स्पष्ट है। यदि मैंने सार्वजनिक बयान नहीं दिया होता, तो प्रधानमन्त्री ने विशेष अदालतों सम्बन्धी अपने विचार नहीं बदले होते। एक अन्य मन्त्री ने जब सरकार पर श्रीमती गाँधी के प्रसंग में नरमी दिखाने का आरोप लगाया, तो प्रधानमन्त्री ने उनसे इस्तीफा नहीं माँगा, बल्कि इस्तीफा देने पर भी वापस लेने का अनुरोध किया। स्पष्ट है कि मेरे मामले में की गई कार्यवाही के कारण कुछ और थे।
प्रधानमन्त्री से मेरे मौलिक मतभेद हैं। वे नहीं समझते कि भारत के आर्थिक विकास का कृषि उपज वृद्धि, किसानों की क्रय-शक्ति में बढ़ोत्तरी का, ग्रामीण उन्नति से कुछ सम्बन्ध है। उदाहरण के तौर पर प्रधानमन्त्री की राय में बिरलाओं की रिहन्द एल्यूमिनियम कारखाने की बिजली की सप्लाई किसानों के नलकूप की बिजली की सप्लाई से अधिक जरूरी है। उ. प्र. के मुख्य मन्त्री को उन्होंने गतवर्ष जो पत्र लिखा, उससे यह स्पष्ट है। 23 जनवरी को प्रधानमन्त्री ने आन्ध्र के मुख्यमन्त्री को चेल्लापल्ली के राजा के गन्ने के खेतों को भूमि सीमा से मुक्त रखने के लिए भी लिखा था। आन्ध्र के तत्कालीन मुख्य मन्त्री श्री बेंगलराव ने ऐसा करने से इनकार कर दिया। ¬¬प्रधानमन्त्री ने गुड़ के 86 लाख टन के उत्पादन में से पाँच हजार टन से अधिक गुड के निर्यात की अनुमति नहीं दी, जबकि अधिक उत्पादन के कारण गुड़ के गिरते मूल्यों रोकने के लिए निर्यात करना जरूरी था। इसके विपरीत 1980 में होने वाले एक अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन के लिए 15-16 करोड़ रुपये खर्च कर होटल बनाया जा रहा है एवं अन्य निर्माण कार्य कराये जा रहे हैं। इस खर्चे को बचाकर नलकूप लगाये जा सकते थे, हजारों गाँवों को पीने का पानी भी मुहैया कराया जा सकता था।
गाँवों के विकास के लिए इसलिए ध्यान नहीं दिया जाता, क्योंकि वहाँ के लोग किसी दूसरी दुनिया के हैं, हमारे नहीं हैं। वे अनपढ़ हैं, गन्दे हैं, इसलिए गरीब गाँव वालों से हमारा क्या वास्ता कि हम उनके लिए रोएँ? यही प्रधानमन्त्री में और मुझमें अन्तर हैं। वे शहरों के अमीर वर्ग की ओर झुके हुए हैं और मैं शहरी और ग्रामीण गरीबों की उन्नति करना चाहता हूँ।
मैंने प्रधानमन्त्री को उनके पुत्र के आचरण की जाँच करने का सुझाव दिया था। ऐसा उनके द्वारा भावनगर में दिये गये भाषण के बाद किया गया था, जिसमें उन्होंने कहा था कि वे कान्ति देसाई के विरुद्ध आरोप प्रमाणित होने पर इस्तीफा दे सकते हैं। यह खबर भावनगर जनता पार्टी के अध्यक्ष के अखबार ‘समर्थन’ ने ही छापी थी। मैंने यही कहा कि हो सकता है कि आरोप गलत हों, किन्तु जाँच कराना आवश्यक है, क्योंकि मेरा मानना है कि जो भी मंत्री या प्रधान मन्त्री अपने परिवार के साथ रहता हो, उसके लिए यह आवश्यक है कि यह दिखना चाहिए कि वह भ्रष्ट नहीं है। आरोप झूठा होगा तो मन्त्री की प्रतिष्ठा बढ़ेगी। यदि सच्चा होने पर मन्त्री को हटना पड़ा, तो सरकार की प्रतिष्ठा बढ़ेगी।
कांति देसाई के कारण ही मेरा इस्तीफा माँगा गया। वह इस बात से भी प्रमाणित है कि समझौता करने वालों के कहने से मैं जब-जब भी प्रधानमन्त्री से मिला, उन्होंने एक ही बात कही कि मैं कांति के विरुद्ध लगाये आरोप वापस लेने का बयान दूँ। प्रधानमन्त्री ने एक बार भी सामूहिक उत्तरदायित्व के बारे में एक शब्द भी नहीं कहा।
10 अगस्त को राज्य सभा ने प्रस्ताव पास कर आरोपों की जाँच के लिए 15 सदस्यीय समिति बनाने का आग्रह सभापति से किया था, प्रधानमन्त्री ने प्रधान न्यायाधीश से जाँच कराने की बात कही। यह गम्भीर परिणामों को जन्म दे सकता है। प्रधान न्यायाधीश को ऐसा करने का कानूनी अधिकार नहीं है। अपने पुत्र के प्रति अगाध प्रेम के कारण देसाई ने जनता पार्टी, देश के सार्वजनिक जीवन और लोकतन्त्र का बहुत बड़ा अहित किया है। राजनारायण से भी इसलिए इसलिए इस्तीफा माँगा गया, क्यांकि उन्होंने प्रधानमन्त्री द्वारा बार-बार कहने पर भी मेडिकल इंस्टीट्यूट के अध्यक्ष पद पर उनके पसंद के व्यक्ति को नियुक्त नहीं किया।
मन्त्रीमण्डल में मुझे शामिल करने के लिए मैं प्रधानमन्त्री का आभार व्यक्त करता हूँ। इस पर भी मैं उन्हें बधाई देता हूँ कि मुझे बर्खास्त किया गया, क्योंकि इससे इतने कम समय में ही देश के किसानों में अभूतपूर्व जागृति पैदा हुई है।