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अहमदशाह अब्दाली का उदय
जून 1749 को नादिरशाह की हत्या हो जाने के बाद अफगानों को अहमदशाह अब्दाली के रूप में एक नया प्रभावशाली नेता मिल गया था। अहमदशाह नादिरशाह की सेना में एक मामूली सा सिपाही था, जिसने नादिरशाह के प्रत्येक हमले में बहुत बढ़-बढ़कर भाग लिया। वह क्रूरता के मामले में नादिरशाह से भी बढ़कर था। नादिरशाह ने भारत पर जितने भी हमले किये, अब्दाली हर हमले में उसके साथ था। अब्दाली की प्रकृति धर्मांध क्रूरता वाली व क्षुद्र लोभ से दूषित थी। अपनी क्रूरता के कारण अब्दाली नादिरशाह की निगाहों में चढ़ता गया। कुछ ही अरसे मेें वह नादिरशाह का अति विश्वस्त बन गया। नादिरशाह ने अंतिम सांस लेने से पहले अहमदशाह अब्दाली को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया था। नादिरशाह, जिसका कि वह नौकर रह चुका था, का उत्तराधिकारी बनने पर अब्दाली ने ‘दुर्र-ए-दुर्रानी’ अर्थात् ‘मोतियों का मोती’ का खिताब धारण किया।
अहमदशाह अब्दाली का प्रथम आक्रमण
अहमदशाह अब्दाली ने अफगानिस्तान का शासक बनते ही सन् 1753 में भारत पर आक्रमण कर दिया। उसका अनुभव बताता था कि क्रूरता का प्रदर्शन करने वाला कोई भी व्यक्ति भारतवर्ष को आसानी से जीत सकता है। उसने अपने स्वामी के समय में इस नीति को हर बार आजमाया था और यह नीति हर बार सफल दिखाई दी थी। अतः उसने इस बार भी उसी नीति को अपनाया और देखते ही देखते उसने पूरा पंजाब जीत लिया। उसकी राह में आने वाले सभी छोटे-बड़े राजाओं ने उसकी क्रूरता के सामने सिर झुका दिया और वह विजय दुंदुभी बजता हुआ दिल्ली की ओर बढ़ा।
अब्दाली से बिना लड़े ही हारा बादशाह
27 जनवरी 1753 को अहमदशाह अब्दाली ने दिल्ली के बाहरी अंचल पर अधिकार कर लिया। मुगल बादशाह आलमगीर द्वितीय को अहमदशाह अब्दाली के आंधी तूफान की तरह राजधानी की ओर बढ़ते चले आने का पता चला, तो वह बुरी तरह डर गया और अपने हरम में बेगमों के पहलू में जा बैठा और शराब के जाम पीता हुआ केवल यही सोचता रहा कि वह अब्दाली से अपनी रक्षा कैसे करे? उसका साहस तक नहीं हो रहा था कि वह अब्दाली नामक तूफान को थामने का कोई प्रयास कर सके।
बुरी तरह भयाक्रांत आलमगीर ने अहमदशाह अब्दाली को विनम्र संदेश भेजा, ‘‘मैं हिंदोस्तान में आपका स्वागत करता हूं।’’
अब्दाली को आशा ही नहीं थी कि हिन्दुस्तान का बादशाह इस प्रकार उसके सामने बिना लडे़ ही हथियार डाल देगा। उसे आशंका थी कि दिल्ली को जीतने के लिए उसे उसी प्रकार संघर्ष करना पड़ेगा, जिस प्रकार नादिरशाह के सामने उनकी सेना को दिल्ली पर विजय करने में संघर्ष करना पड़ा था। लेकिन जब उसने पाया कि विराट भारत का बादशाह उसके साथ बिना युद्ध किये ही उसके पैरों में गिरने को तत्पर था, तो वह बहुत खुश हुआ। उसने अहंकार भरे अंदाज में सम्राट को संदेश भेजा, ‘‘मैं हिंदुस्तान का साम्राज्य आपको प्रदान करता हूं। आप पूरी राजकीय सजधज के साथ मुझसे मिलने आइए।’’
आलमगीर झुका अब्दाली के सामने
सम्राट आलमगीर अहमदशाह से बुरी तरह भयाक्रांत था। क्योंकि वह जानता था कि यह वही अब्दाली है जो सात वर्ष पूर्व जब वह अपने स्वामी नादिरशाह के नेतृत्व में दिल्ली में आया था, तो उसने पूरी दिल्ली को जी भरकर लूटा था और अपने अत्याचारों से दिल्ली में हा-हाकार मचा दिया था। और इस बार तो वह एक बादशाह के रूप में दिल्ली को पददलित करने आ रहा था। अतः इस बार वह दिल्ली में आकर कौन-कौनसे अत्याचार करेगा, कुछ कहा नहीं जा सकता था। अतः उसने निर्णय किया वह अब्दाली के समक्ष सम्पर्ण दीनता से पेश आयेगा और उसे किसी भी प्रकार क्रोध दिलाने से पूरी तरह बचेगा। यह सोचकर आलमगीर अपने साथ पूरा लाव-लश्कर लेकिर अब्दाली से मिलने चला। शाह आलम अपने साथ तरह-तरह के कीमती तोहफे व रत्न-आभूषणों की भेंट लेकर अब्दाली सेमिलने चला और उसके समक्ष जाकर अत्यन्त दीनतापूर्वक, एक प्रकार से आत्मसर्मपण कर, उसको सामग्री भेंट की और कृपा प्राप्त की। दोनों की मुलाकात ऐसे हुई जैसे एक दास और एक स्वामी आपस में मिलते हैं। संसार के सबसे बड़े शासकों में से एक शाह आलम, भारत के एक छोटे से प्रान्त के बराबर भूभाग पर सत्ता करने वाले अहमदशाह अब्दाली के सामने किसी अपराधी की भांति हाथ जोड़े खड़ा था और अब्दाली उसके द्वारा दिये गये तोहफों को देखकर प्रसन्नता का अनुभव करते हुए उसे यूं देख रहा था, जैसे कि उसके सम्मुख कोई मामूली सा कैदी खड़ा था।
अब्दाली का दिल्ली पर अत्याचार
अहमदशाह अब्दाली पूरी सजधज और शान के साथ भारत के बादशाह आलमगीर के साथ दिल्ली में प्रविष्ट हुआ। पूरी दिल्ली अत्याचारी नादिरशाह के उत्तराधिकारी अहमदशाह अब्दाली के आने से कांप उठी। अभी कुछ ही दिन पूर्व दिल्ली ने नादिरशाह की सेना के अत्याचारों का सामना किया था। अतः उनकी स्मृति में अभी तक उस अफगान आक्रांता के अत्याचार कौंध रहे थे। सेना 29 जनवरी को दोनों सम्राटों का सम्मिलित सार्वजनिक दरबार लगा। अब्दाली के नाम के सिक्के प्रचलित किये गये। इसके बाद दिल्ली की बर्बादी शुरू हुई। यह 1749 के इतिहास की पुनरावृत्ति थी जब नादिरशाह ने दिल्ली को जी भरकर लूटा था। अब्दाली ने अपने आका नादिरशाह से जो कुछ सीखा था, उसी के अनुरूप उसने अपनी सेना को दिल्ली को लूटने और निर्दोष लोगों के कत्लेआम के आदेश दे दिये। उसकी सेना ने राजधानी में भयंकर खूनी उत्पात शुरू कर दिया। दिल्ली में एक बार फिर त्राहि-त्राहि मच गयी। मुगल बादशाह और उसके सामंत चुपचाप उस अफगान के पैरों में पड़ गये। उन्होंने अपने साम्राज्य और लोगों की रक्षा के लिए, यहां तक कि अपने इष्ट प्रियजनों की रक्षा तक के लिए भी तर्जनी अंगुली तक नहीं हिलायी।
अब्दाली को रोका जाटों ने
अब जाट और अब्दाली की सेना आमने सामने थी. जाटों ने लाहौर में अब्दाली की सेना का डटकर प्रतिरोध किया था। जाटों के एक प्रमुख संगठन ‘मान-पूनिया-चट्ठे’ के अधीन लगभग तीन हजार जाटों ने अब्दाली की सेना के पृष्ठ भाग पर हमला कर लगभग पांच सो से अधिक सैनिक मार डाले और उसका बहुत सा समान जिसमें बहुत सी खाद्य सामग्री और गोला बारूद और एक तोप लूट ली। इस छापामार युद्ध में जाटों ने जाटों ने केवल दो दर्जन वीरों को खोया. इस प्रकार एक प्रकार से इस युद्ध में बाजी जाटों के हाथ रही। यद्यपि अब्दाली को इससे कोई विशेष हानि नहीं हुई थी, लेकिन इस घटना ने जाटों का मनोबल बढ़ा दिया था। इसका प्रभाव यह पड़ा कि अमृतसर तक पहुंचते-पहुंचते जाटों ने अब्दाली की सेना पर लगभग एक दर्जन बार आक्रमण किये और कम से कम दो हजार की संख्या में अब्दाली के सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया और बहुत सारा माल-असबाब लूट लिया। आरम्भ में अब्दाली जाटों में बहुत हल्के में ले रहा था. लेकिन जाटों ने अब्दाली को बता दिया था कि अभी भारत वीर पुरुषों से खाली नहीं हुआ है।
जब अब्दाली भारत अभियान के बाद वापिस अपने देश लौटा, तो जाटों ने उसकी सेना पर फिर आक्रमण किये और उसके द्वारा दिल्ली में की गयी लूट का काफी बड़ा भाग लूट कर उसके दिल में जाटों के प्रति रोष और भय उत्पन्न कर दिया।
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