जाटों का इतिहास |प्रथम स्वाधीनता संग्राम के नायक जाट वीर

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जाट कौम सदियों से बाहरी आक्रांताओं पर कहर बनकर टूटती रही है और स्वयं भी बर्बाद होती रही है। जब-जब भी देश पर कोई विपत्ति आयी इसने सबसे आगे बढ़ कर देश की रक्षा की है। ऐसे एक नहीं सैकड़ों उदाहरण हमारे सामने हैं जबकि जाट कौम ने देश हित के लिए अपने हजारों-लाखों नौजवानों को हंसते-हंसते कुर्बान कर दिया।

जाट संतों ने अंग्रेजी दासता के विरुद्ध अलख जगाई

सोने की चिड़िया लूटने के इरादे से व्यापारी के रूप में देश में घुसे अंग्रेजों ने भारत को अपने शिकंजे में कस, अपना उपनिवेश ही बना लिया। उन्होंने भारत की जनता पर नियंत्रण करने के लिए जो जुल्म ढाने शुरू किये, उनसे चारों ओर त्राहि-त्राहि मच गयी। आम जन की कौन कहे, नवाब, जमींदार-जागीरदार जैसे प्रभावशाली लोग भी उनके जुल्मों से कांपने लगे। भारत की आत्मा अंग्रेजों के चंगुल से आजाद होने के लिए तड़पने लगी। इन हालात में 19वीं शताब्दी के मध्य, देश के कई संतों जैसे-स्वामी दयानन्द, स्वामी पूर्णानन्द, संत गंगादास, स्वामी बिरजानन्द आदि ने देश को इन आतताईयों के चंगुल से आजाद कराने का बीड़ा उठाया और उन्होंने सारे देश में घुमघूमकर जनमानस में आततायी अंग्रेजों के विरुद्ध वातावरण तैयार किया। अन्ततः उनके प्रयास रंग लाये और 10 मई 1857 को मेरठ में एक क्रांति की ज्वाला भड़की, जो पूरे देश में धधक उठी।

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क्रांतिकारियों को बागी घोषित कर जेल भेजा

क्रांति की इस ज्वाला को चिंगारी देने का सबसे महत्वपूर्ण कार्य किया मेरठ स्थित देसी सेना की लम्बोड़ी पलटन के 85 सैनिकों ने, जिनमें 28 सैनिक जाट थे। इन सैनिकों ने गाय और सूअर की चर्बी लगे कारतूसों को मुंह से ताड़ने से स्पष्ट इंकार कर, पहली बार अंग्रेजी अफसरों के विरुद्ध आदेश उल्लंघन का प्रदर्शन करने का साहस किया था। अंग्रेजों की दृष्टि में आदेश की अवहेलना करना अति भयानक दण्डनीय अपराध था। इस अपराध की सजा उन सैनिकों को हाथों हाथ दी गयी। उनको ‘बागी’ करार देकर उनके हथियार छीन लिये गये और उनको बुरी तरह अपमानित करते हुए, उनकी वर्दियां उतरवाकर उनका कोर्ट मार्शल कर जेल भेज दिया गया।

जाट सैनिकों के साहस से डरे अंग्रेज़ अधिकारी

अंग्रेजों के आतंक से मुक्ति पाने के लिए मचलते भारतीय जवान अपने साथियों के इस अपमान से तिलमिला उठे। उन्होंने तुरन्त करो या मरो का निर्णय लिया और अपने साथी सिपाहियों को जेल से मुक्त कराने के लिए अपनी बैरकों से निकल पड़े। इन विद्रोही सैनिकों को डरा-धमकाकर वापिस बैरकों में भेजने के लिए देसी सेनाओं में आतंक के रूप में प्रसिद्ध कैप्टेन हैनरी कैडीगन, कै. मैकेन्जो, लेफ्रटीनेन्ट मेलबिन क्लार्क, ले. डेविड रूम, ले. अलफ्र्रेड जैसे अंग्रेज अधिकारियों को भेजा गया। किंतु अपने दिलों से अंग्रेजां के आतंक के साये को उतारकर फेंक चुके देसी जवानों ने उन अधिकारियों को धमकाते हुए आड़े हाथों लिया, तो वे डरकर सिर पर पैर रखकर भाग गये। ऐसा प्रथम बार हुआ था कि भारतीय सैनिकों ने अपने अंग्रेज अधिकारियों को यूं धमकाया था। वरना तो देसी सैनिकों का इन अधिकारियों की तरफ आंख उठाकर देखने तक का साहस न होता था।  विद्रोही सैनिकों की धमकी से भयभीत होकर भागते अंग्रेज अधिकारियों को देखकर देसी सेना के सैनिकों का खोया हुआ आत्मविश्वास लौट आया। उन्हें उस दिन पहली बार अपने अस्तित्व का बोध हुआ। उस दिन पहली बार उन्हें लगा कि अंग्रेज अधिकारी, जो उन्हें सदा आतंकित किये रहते थे, कितने डरपोक और कायर हैं। उस दिन उन सैनिकों को पहली बार एहसास हुआ कि उनका भी कुछ अस्तित्व है, वे भी अंग्रेजों की तरह ही भावनाएं रखते हैं, वे भी अंग्रेजों की तरह ही हाड़-मांस के इंसान हैं और उनसे अधिक साहसी और वीर हैं।

इस भावना ने देसी सैनिकों के दिलों में एक ऐसे अनोखे उत्साह एक ऐसी अनोखी उमंग का संचार किया, जिसकी वे कभी कल्पना भी नहीं कर सकते थे। अंग्रेज अधिकरियों के आतंक के साये में जीना उन सैनिकों की नियति बन चुका था। वे सब उन अंग्रेज अधिकरियों के बिना खरीदे गुलाम थे, जो उनकी पुतलियों के संकेतों पर जीते थे, मरते थे। वे सैनिक जो कभी अपने आकाओं की ओर आंख उठाकर भी नहीं देख पाते थे, जो उनके आदेश की अवहेलना करने की सपने में तक में नहीं सोच सकते थे, अचानक ही अपने दिलों से अपने आकाओं के आतंक का साया उतार फेंकने में कामयाब हुए, तो उन्हें पता चला कि गुलामी की जंजीरों को उतारकर फेंकना कितना आसान है। उन्होंने पहली बार स्वयं को स्वाधीन अनुभव किया, तो उन्हें लगा कि आजादी की हवा में सांस लेना कितना रोमांचकारी और सुखद एहसास है। आजादी की उस सांस ने उन्हें एहसास कराया कि वे अपने साहस और अपने बाहुबल से पूरे मुल्क को गुलामी की जंजीरों से आजाद करा अंग्रेजों को आसानी से देश से भगा सकते हैं।

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जाट क्रांतिकारियों ने मेरठ को अंग्रेजों से मुक्त कराया

आजादी की सांस ने देसी सैनिकों के अंतस में ऐसे साहस का ऐसा संचार किया कि उनके दिलों में भारत माता को अंग्रेजों के जाल से मुक्त कराने की भावना बलवती हो उठी। इसी भावना से अभिभूत हो वे सैनिक ऐसा कल्पनातीत कार्य कर गुजरे, जिसकी कल्पना न उन्होंने की थी और न कभी अंग्रेजों ने ही की होगी।
वतनपरस्ती के जज्बे और उत्साह से लबरेज देसी सैनिकों ने मेरठ भर में मौजूद अंग्रेजों का कत्ले आम करना शुरू कर दिया। उन्होंने जेल पर हमला कर अपने सभी 85 साथी सिपाहियों को भी जेल से मुक्त करा लिया। कुछ ही देर में इन क्रांतिकारियों ने मेरठ को अंग्रेजों से मुक्त करा लिया। देखते ही देखते मेरठ को अंग्रेजां के कब्जे से मुक्त कराने से उत्साहित सैनिकों ने तुरंत दिल्ली कूच कर दिया।

क्रांतिकारियों ने तोडा अंग्रेजों का घमंड

क्रांतिकारी सैनिकों ने दिल्ली पहुंचकर लाल किले में प्रवेश किया और बादशाह बहादुरशा जफर को भारत का स्वतंत्र सम्राट घोषित कर लाल किले पर केसरिया झण्डा लहरा दिया और नारा दिया, ‘खल्क खुदा का, मुल्क बादशाह का’ वहां मौजूद अंग्रेज अधिकारी फ्रेजर, डगलस, जेनिंग्स, हचिन्सन और जेनिंग्स को मार डाला। यही नहीं बंदीगृह में बंद 50 अंग्रेजों की भी क्रांतिकारियों ने खुले मैदान में ले जाकर इहलीला समाप्त कर दी। स्वयं को अजेय कहने वाली अंग्रेज कौम इन वीरों के सामने पस्त हो गयी। अंग्रेज अपने मुंह पर कालिख पोतकर दिल्ली से सिर पर पैर रखकर भाग गये। उन्हें छिपने का कोई ठोर दिखाई नहीं मिला। विद्रोही सैनिकों और भारत की जनता ने उन स्वयंभू ‘महाप्रभुओं’ को दौड़ा-दौड़ाकर पीटा और मौत के घाट उतारा। भारत की जनता ने अंग्रेजों का गरूर उतार फेंका।

उत्तर भारत का जाट बाहुल्य क्षेत्र सबसे पहले हुआ स्वतंत्र

अंग्रेजों को उनकी औकात बताने वालों में सबसे आगे थे उत्तरी भारत के जाट और मुसलमान। इस क्रांति युद्ध में मुसलमान केवल अपने खोये हुए मुगल साम्राज्य को वापिस पाने के लिए युद्धरत हुए थे, जबकि जाट विशुद्ध देशभक्ति की भावना से इस युद्ध में शामिल हुए थे।
दिल्ली और निकटवर्ती क्षेत्र के जाटों ने भारी संख्या में इस क्रांति में अपने प्राणों की आहुतियां दीं। दिल्ली, सहारनपुर, मुज़फ्फरनगर, मेरठ, गाजियाबाद, शामली, बड़ौत, बिजनौर, बागपत, बुलन्दशहर, अलीगढ़, मथुरा, आगरा, मुरादाबाद, फरीदाबाद, गुड़गांव, हिसार, रोहतक, हांसी, सोनीपत, पानीपत, अम्बाला आदि स्थानों पर जाटों ने परम्परागत हथियारों से ही अनगिनत अंग्रेजों को मौत के घाट उतारकर उत्तरी भारत के एक बड़े भूभाग को स्वतन्त्र करा लिया था। जाट अपने परम्परागत देशभक्ति के जज्बे के कारण अंग्रेजों का काल बन गये थे।

किंतु राजपूताने और पंजाब की सिख सेनाओं के सहयोग से अंग्रेज क्रांति को कुचलने में कामयाब हो गये। भारत के अनेकों युवकों की शहादत निरर्थक गयीं। मेरठ के वीर सैनिकों के जज्बे को राजपूतों और सिख राजाओं ने नहीं पहचाना। ये राजा परतन्त्रता की बेड़ियों में जीने के आदी हो चुके थे। अतः वे स्वाधीनता के मूल्य को नहीं आंक सके। उन्होंने अपने निहित स्वार्थों के चलते अंग्रेजों का साथ दिया। इसका परिणाम यह निकला कि क्रांति की वह ज्वाला जो भारत के महान संतों और मेरठ के वीर सैनिकों ने जलायी थी, थोड़ी से प्रज्वलित होते ही बुझ गयी। क्रांति की विफलता के बाद अंग्रेजों ने चौगुनी शक्ति के साथ भारतवासियों पर दमन चक्र चलाया। विद्रोह काल में वर्तमान हरियाणा के जाटों का क्रांति में सबसे अधिक योगदान रहा और विद्रोह के बाद सबसे अधिक दण्ड भी इन्हीं जाटों को दिया गया।

स्वाधीनता संग्राम में दिल्ली के आसपास के क्षेत्र के लगभग 12 हजार जाट वीरों ने अंग्रेजों के साथ युद्ध करते हुए अपने प्राणों की आहुतियां दी थीं। इसके अलावा अंग्रेजों ने जाटों को बागी करार दे कर उनके कई गांवों जैसे हरियाणा के रोहनात, छतरियां, खैरा तथा असंध गांव को पूरी तरह से तोपों से उड़ा दिया था। उन्होंने इन गांवों में एक बच्चे तक को जीवित नहीं छोड़ा था और बड़ौत, शामली, पुरकाजी, रोहतक, करनाल, कैथल, थानेसर, पलवल, फरीदाबाद, गुड़गांव आदि स्थानों पर बागों, सड़कों के किनारे खड़े पेड़ों पर जाट वीरों को फांसी पर लटकाया और हफ्रतों तक उन शहीदों के शवों को पेड़ों से नहीं उतरने दिया।

 

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