जाट रेजीमेंट – विश्व में जाट रेजीमेंट का इतिहास इस बात का गवाह है कि प्राचीन काल से लेकर वर्तमान तक जाटों के साहस ने नित नए परचम लहराए हैं। इतिहास बताता है कि उत्तरी भारत में सबसे पहले जाट राजाओं ने ही लम्बे समय, ई- पू- 2500 से 500 ई- तक राज्य किया।
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जाट विश्व के श्रेष्ठ सैनिक माने जाते थे
जाट उस समय के सबसे अच्छे सैनिक थे. जाटों का प्रभाव केवल भारत तक ही सीमित नहीं था। ई- पू- 1000 के लगभग उन्होंने मध्य-पूर्व में एक विशाल साम्राज्य की स्थापना कर ली थी। ऐसा प्रतीत होता है कि अपने शत्रु पर विजय प्राप्त करने के उद्देश्य से जाटों के छोटे-छोटे समुदाय एकजुट हो गये थे। ईसा पूर्व छठी शताब्दी तक जाट विश्व के श्रेष्ठ सैनिक माने जाने लगे थे। उस काल में फारस की सेना में भर्ती होने वाले जाटों की संख्या काफी बढ़ चुकी थी। सिंकदर की सेना का एक अंग जाटों का था। चंगेजखान की सेना में सबसे आगे जाट घुड़सवारों का दल होता था।
यह भी एक वर्णन योग्य तथ्य है कि सभी हिंदू धार्मिक अनुष्ठानों में जाटों की सबसे अधिक आस्था शस्त्र पूजा पर ही रही है।
जाटों ने बनायी लोकतांत्रिक व्यवस्था
जाट आरम्भ से ही नितांत सरल एवं व्यावहारिक जीवन के आदी रहे हैं। वे एकता की शक्ति को पहचानते थे। इसीलिए उन्हें एक राजा की आवश्यकता हुई, जिसकी चुनाव विधि शायद इस देश में होने वाली स्वतंत्र चुनाव पद्धति का प्रथम उदाहरण है। राजा-पद किसी वंश की बपौती न था। इस पद का अधिकारी कोई भी सर्वाधिक योग्य व्यक्ति हो सकता था। राज्य-भार संभालने के बाद, राजा स्वतंत्र रूप से शासन सम्भालता था। प्रजा राजा के प्रति और राजा प्रजा के प्रति निष्ठावान था। जाटों में यह गुण आज भी विद्यमान है और वे किसी पर सहज में ही विश्वास कर लेते हैं। उनके इसी गुण के कारण, किसी भी अफसर के लिए जाट पलटन की कमान संभालना अत्यंत ही सुखद अनुभव होती है।
जाट प्रकृति योद्धा होते हैं
जाटों में जन्म से ही कुशल सैनिक के गुण मिलते हैं। जबकि अन्य लोगों के द्वारा इन्हें सघन प्रशिक्षण के उपरांत प्राप्त किया जाता है। फील्ड मार्शल बेवल ने कहा था, ‘एक अच्छे सैनिक के मूल गुण हैं-शारीरिक और दिमागी ताकत और मुश्किलों को सहने की असीम शक्ति-इसी का दूसरा नाम साहस है।’ जाटों के विषय में ज्ञान रखने वाला कोई भी आदमी निःसंकोच इस सच्चाई को कह सकता है कि इन गुणों में जाट की कोई भी बराबरी नही कर सकता। इसी के साथ ही जाट के साथ है एक किसान की कठोर काया एवं देखने की अद्भुत शक्ति। सब मिलाकर जाट एक सम्पूर्ण सैनिक है। अगर उसे कुछ और चाहिए तो वह है केवल कुशल नेतृत्व।
जाटों ने लड़ीं ऐतिहासिक लड़ाइयाँ
जाटों को युद्ध के लिए उकसाने हेतु किसी ठोस कारण की जरूरत नहीं होती। ऐसे कई उदाहरण मिलेंगे, जहां किसी संघर्ष में दोनों पक्षों में जाट सैनिक मौजूद थे। इतिहास साक्षी है कि सिकंदर महान और सीरस के युद्ध में दोनों ही ओर से जाटों की सैनिक टुकड़ियां लड़ रही थीं। आधाुनिक काल में सन् 1809 में भिवानी की लड़ाई में अंग्रेजों ने अपने अधीनस्थ जाट बटालियन द्वारा ही जाटों के किले पर विजय प्राप्त की थी।
अपने साहसिक गुण के कारण जाटों ने चार महान यशस्वी योद्धाओं को पराजित करने में सफलता प्राप्त की। उन चारों के लिए पराजय का मुंह देखने का वह पहला ही अवसर था। ये थे ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में सेल्यूकस, दूसरा अलाउद्दीन खिलजी-जिसे तेरहवीं शताब्दी में तिलपत के युद्ध में जाटों ने बुरी तरह से हराया था, तीसारा महमूद गजनवी जिसे जाटों ने 1014 ई- में कश्मीर में पराजित किया था और चौथा अंग्रेज सेनापति लार्ड लेक जिसे 1804 के युद्ध में जाटों ने सीमित साधनों के होते हुए हराया था।
जाट रेजीमेंट का इतिहास
अंग्रेजों ने शुरू की रेजिमेंटल व्यवस्था
अंग्रेजों ने अपनी प्रभुसत्ता बनाए रखने के लिए भारतीय सैनिकाें को अधिक से अधिक सुविधाएं-जैसे अच्छा वेतन, सम्मान एवं सैन्य जीवन में गर्व की उच्च भावना व वरिष्ठ सैनिकों को वी- सी- ओ- के रैंक आदि प्रदान कीं। इस तरह भारतीय सेना में रेजीमेंटल नेतृत्व की श्रेष्ठ परंपरा आरम्भ हुई। अपनी रेजीमेंट की मान मर्यादा की रक्षा के लिए भारतीय जवानों ने अपनी कुर्बानी के अनेकों ज्वलंत उदाहरण प्रस्तुुत किये। भारतीयों में दोनों विश्व युद्धों के दौरान सर्वाधिक त्याग करने व हताहत होने की होड़ लगी रहती थी।
अंग्रेजों ने की जाट रेजीमेंट की स्थापना | जाट रेजीमेंट की स्थापना कब हुई?
जब अंग्रेज भारत आये, तो उन्होंने अपनी दूरदर्शिता से भांप लिया कि एक अच्छा सैनिक हिंदु, मुसलमान अथवा सिख होने के अतिरिक्त किसी युद्ध प्रिय समुदाय से भी सम्बन्ध रखता था। उन्होंने इस तरह की योद्धा जातियों को पारिवारिक एवं जातीय आधार पर अलग-अलग रेजीमेंटों में संगठित किया। इसी क्रम में 20 नवम्बर 1795 में जाट रेजिमेंट का गठन किया गया। समय के साथ-साथ इन रेजीमेंटों में साहस और शौर्य की गौरवपूर्ण परंपरा मजबूत होती गयीे। सैनिकों के परिवार, गांव तथा जाति भी इन परंपराओं के गौरव को अपना गौरव समझने लगे। इन रेजीमेंटों ने दोनों विश्व युद्धों में बहुत इज्जत अर्जित की। ये रेजीमेंटें थीं-गोरखा, जाट, मराठा, राजपूत, बलूच, सिख, गढवाल और कुमायूं रेजीमेंट आदि।
ब्रिटिश इंडियन आर्मी का मजबूत स्तम्भ जाट रेजीमेंट
इतिहासकारों का मानना है कि अंग्रेज एक लंबी अवधि तक इसलिए भारत पर शासन करते रहे क्योंकि भारतीय सैनिक ब्रिटिश इण्डियन आर्मी के प्रति निष्ठावान थे और उनके हृदय में ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति सम्पूर्ण आस्था एवं अंग्रेज अफसराें के प्रति असीम स्वामीभक्ति की भावना थी। लगभग दो सौ वर्षों तक अफसर पद पर केवल अंग्रेज ही नियुक्त हो सकते थे। भारतीय तो केवल सिपाही से अपना सैन्य जीवन आरम्भ करते थे और केवल जूनियर अफसर ही बन सकते थे। भारतीय सैनिकों का कर्तव्य था युद्ध क्षेत्र में वीरता पूर्वक लड़ना। सैन्य व्यवसाय मेंं असाधारण कुशलता न केवल युद्ध में उनके जीवन की ही रक्षा करती थी, अपितु इसके अभाव में वे अपनी आने वाली पीढ़ियों के जीवन यापन का साधन भी खो सकते थे। अंग्रेज इस सच्चाई को खूब समझते थे और उन्होंने इसका भरपूर लाभ भी उठाया। उपरोक्त तथ्यों की पुष्टि 1857 के गदर से होती है। यदि भारतीय सैनिक अंग्रेजों के प्रति असीम स्वामीभक्ति न रखते, तो उस समय अंग्रेजों का साम्राज्य भारत से पूर्ण रूप से उखड़ गया होता।
जाट रेजीमेंट की तीन बटालियन
उन्नीसवीं सदी के शुरू में जाट रेजीमेंट की तीन बटालियनें खड़ी की गयीं थीं। प्रथम विश्व युद्ध तक इन तीनों पलटनाें द्वारा 17 समर सम्मान अर्जित किये गये थे। इनमें प्रथम ‘नागपुर’ (28 दिसम्बर 1817) में ही जाटों ने अपने अविश्वसनीय पक्के इरादे एवं वीरता का परिचय देकर, अपने उज्ज्वल भविष्य की झलक दिखा दी थी। इस पलटन ने एक दिन में 51 मील की दूरी तय की और केवल चार घण्टे विश्राम के बाद पलटन ने 67 मील दूर नागपुर की ओर प्रस्थान किया था। इस पलटन ने लगातार 30 घण्टे तक चलने के बाद अपने लक्ष्य पर पहुंचकर हारी थकी होने के उपरांत भी अपने शत्रु पर आक्रमण कर उसकी रक्षा व्यवस्था को तहस नहस कर उसे घुटने टेकने के लिए मजबूर कर दिया था।
जाट रेजीमेंट की ‘दो जाट’ बटालियन
‘दो’ जाट’ बटालियन ने प्रथम अफगान युद्ध में भाग लिया था। चार वर्ष तक चलने वाले इस युद्ध में जाट पलटन ने कई छोटी-बड़ी लड़ाइयां लड़ने के अतिरिक्त अन्य कई साहसिक कार्यों में भी भाग लिया था। इस अभियान में कई यूनिटें खत्म हो गयीं, लेकिन जाट पलटनें अपने अनुशासन एवं फायर शक्ति पर नियंत्रण रख सकने के कारण सकुशल वापिस आने में कामयाब हुई।
कमांडिग जनरल गॉट ने भारतीय पलटनों से प्रभावित होकर अपने डिस्पैच में लिखा था, ‘मैं 1000 जाट सैनिकों के साथ किसी भी समय 5000 अफगानों के विरुद्ध लड़ने के लिए तैयार हूुं।’
अनेकों सेनाओं को हराया जाट रेजिमेंट ने
यह गर्व की बात है कि ऐसी चुनींदा पलटनों में से केवल ‘एक जाट’ रेजीमेंट को ही ‘लाइफ इन्फैन्ट्री’ के सम्मान के द्वारा सुशोभित किया गया।
प्रथम विश्व युद्ध में जाट बटालियनाें ने अन्य भारतीय यूनिटों के साथ मिलकर जर्मनों एवं तुर्कों जैसे अति विकट शत्रुओं को पराजित किया था। 1914 में लड़ने वाली पलटन 1 जाट के विषय में कहा गया था, ‘जाटों ने सदा अटूट साहस का परिचय दिया और सैनिकों की संख्या काफी कम होते हुए भी युद्ध क्षेत्र से मुंह नहीं मोड़ा।’
इस युद्ध में हताहत होने वालों की संख्या इस प्रकार थी-अफसर 50 प्रतिशत, वीसीओज 67 प्रतिशत और अन्य रैंक के जवान 55 प्रतिशत। 1915 में केसीकन की लड़ाई में 2 जाट रेजीमेंट में मृतकाें तथा घायलों की संख्या क्रमशः 124 व 397 की अविश्वसनीय संख्या तक पहुंच गयी थी। इसके कुछ ही दिन बाद कुत-अल-अभारा की रिलीफ में 1 जाट रेजीमेंट में केवल 6 अफसर, 5 वीसीओज और 170 अन्य रैंक शेष रह गये थे। फिर भी पलटन अपने मोर्चे पर डटी हुई लड़ती रही और अंत में सब रैंकों की संख्या केवल 21 रह गयी। इस उच्च कोटि की वीरता एवं अपने आप में मिसाल वाली 1 जाट रेजीमेंट को ‘लाइफ इन्फेन्ट्री’ के अलावा ‘रॉयल’ सम्मान से भी सुशोभित किया गया।
ब्रिटिश साम्राज्य के इतिहास में एक साथ इन दोनों सम्मानों को पाने वाली 1 जाट ही एकमात्र पलटन हुई।
अंग्रेजों ने जाटों को कई अन्य इन्फेन्ट्री तथा घुड़सवार रेजीमेंटों, तोपखानों तथा अन्य सेवाओं में भी भर्ती किया। उनकी सेना में अधिक संख्या जाटों की ही थी। 1 जाट रेजीमेंट को प्रथम विश्व युद्ध मेें 15 और द्वितीय विश्व युद्ध में 9 समर सम्मान प्रदान किये गये थे। 3 जाट का द्वितीय विश्व युद्ध में अधिकतम वीरता पदक पाने के क्रम में चौथा स्थान था। यह सम्मान पाने वाली दोनों ही जाट रेजीमेंट थीं।
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