History of Jat | जाट इतिहास | जाटों की उत्पत्ति कहाँ से हुई

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जाटों की उत्पत्ति कहाँ से हुई

जब हम जाट इतिहास पर दृष्टिपात करते हैं, तो पता चलता है कि जाट इतिहास के सिरे महाभारत काल से जुड़ते दिखाई देते हैं.

महाभारत तथा भागवत से ज्ञात होता है कि जाट जाति का आरम्भ यदुवंश से हुआ. भागवत तथा महाभारत के आधार पर आधुनिक इतिहासकारों ने स्वीकार कर लिया है कि महाभारत और प्रभास युद्ध के बाद यादवों के संगठन को गहरा धक्का लगा। उन्होंने अपने पैतृक राज्य तथा सम्पदा को छोड़कर प्रवासी नागरिकों के रूप में उत्तर पश्चिम की ओर प्रयाण किया। अर्जुन के साथ में द्वारिका से आने वाला यादवकुलीन जर्त या जत समूह था. ये परिवार घुमक्कड़ कबीलों के रूप में भारतीय सीमाओं के बाहर इधर-उधर बिखर गये।

यदुवंशियों का राज्य प्रयाग में था। यदुवंशीय जाट  कालान्तर में यादव कहलाये गये. मथुरा के आसपास यादवों का राज्य था। भगवान की मानवी लीला समाप्त होने के उपरान्त, अर्जुन उनके परिवार को इन्द्रप्रस्थ ले गया। उन्हीं में श्री कृष्ण का प्रपौत्र बज्रनाभ भी था। बज्रनाभ ने ब्रज में अपना राज्य स्थापित किया और वर्तमान गांव वहज के स्थान पर उसने अपने नाम पर राजधानी की स्थापना कर उसका नाम बज्रनाभपुर रखा।
ख्यातों से ज्ञात होता है कि आगे चलकर इस वंश में सन् 879 ई. में महाराज इच्छपाल मथुरा का प्रसिद्ध जाट  राजा हुआ। जिसके  ब्रह्मपाल  तथा विनयपाल नाम के दो पुत्र हुए। इच्छपाल की मृत्यु के बाद मथुरा का राजा ब्रह्मपाल हुआ. इनके कुछ वंशज स्वयं को जाट तो कुछ स्वयं को यादव कहने लगे। ब्रह्मपाल के मरने पर उसका पुत्र जयेन्द्रपाल (इन्द्रपाल) वि. सं. 1023 (ई. 966) में गद्दी पर बैठा। उसका देहान्त सं. 1049 कार्तिक सुदी 11 को हुआ। इसके ग्यारह पुत्र थे जिनमें जेष्ठ महाराज विजयपाल था। उसने 53 वर्षों तक राज्य किया। (राजपूताने का इतिहास श्री जगदीश सिंह गहलोत पृ. 597)

अपनी विजय पर देवता को शीश चढ़ाया राजा विजयपाल ने

यह वह समय था जब उत्तरी भारत पर यवनों के आक्रमण आरंभ हो गये थे। सन् 1018 ई. में महमूद गजनवी द्वारा मथुरा लूटी जा चुकी थी। इसी कारण मैदानों में बसी हुई राजधानियाँ उस काल में  सुरक्षित नहीं समझी जाती थीं। विजयपाल वहां से अपनी राजधानी को हटा कर पास की मानी पहाड़ी पर ले गया। जहां पर उसने विजयमंदिर गढ़ नाम के एक विशाल किले का जीर्णोद्धार कराया। यह किला उसने सन् 1040 ई. में बनवाया था। जो शिलालेख विजयपाल के संबंध में भिन्न-भिन्न स्थानों से प्राप्त हुए हैं, उनमें उसे ‘महाराजाधिराज परम भट्टारक लिखा है। करौली की ख्यातों के अनुसार महाराजा विजयपाल का युद्ध गजनी के मुसलमानों के साथ हुआ था, जिसमें उसने मुसलमानों को परास्त किया। ख्यातों में यह भी लिखा है कि विजयपाल ने युद्ध में प्राप्त विजय के उपरान्त अपना सिर महादेव पर चढ़ा दिया। उसके साथ उसकी बहुत सी रानियां सती हुईं। विजयपाल के 18 पुत्र कहे जाते हैं, जिनमें तिमनपाल जेष्ठ पुत्र था।
मध्यकाल में जाट-प्रधान भूमि खण्ड अनेकों प्रजातांत्रिक संघों में विभक्त था। और यह राज्य संघ ‘गण’ कहलाते थे। प्राचीन परम्परा तथा राष्ट्रीय एकता के आधार पर राजपूताना के यादवों (जाटों) और राजपूतों ने भूमि को आपस में बांट लिया। लेकिन शक्ति के अभाव में यादव  साधाारण किसान अथवा जमींदार रह गये, जबकि राजपूत भूमि के स्वामी बन गये।
शताब्दियों तक इस अवस्था में रहने के कारण यादवों को भारतीय दर्शन शास्त्री अथवा धमाचार्यों की परम्परागत शिक्षा-दीक्षा से वंचित रह जाना पड़ा। फिर भी इन प्रवासी कबीलों में परम्परागत संस्कारों के रूप में उन्नत कृषि उत्पादन और युद्ध कला की परम्पराएं विद्यमान रहीं। इन प्रवासी यादवों ने नवीन नगर बसाये और वहां की भूमियों को नवीन उपनिवेशों का रूप दिया, जबकि ब्रज तथा मालवा जनपद में आबाद परिवारों को अनेकों संघर्षों राजनैतिक विप्लवों अथवा क्रांतियों से टक्कर लेनी पड़ी। इन्होंने पश्चिमोत्तर मार्ग से भारत में प्रविष्ट होने वाले हूणों, शकों और यूनानियों से लोहा लिया।
मुहम्मदी युग की गाथाओं से यह स्पष्ट होता है कि सीमांत प्रदेश में यादवों (जाटों) का बाहुल्य था और ये लोग हिन्दू साम्राज्य के अग्रगामी दलों के रूप में इन प्रान्तों के सजग प्रहरी रहे थे। वे पारसी तथा मौर्य सम्राटों के नेतृत्व में कई बार युद्ध में भाग लेने के लिए सिंधु पार करके गये थे। मुसलमानों के तीखे हमलों से पूर्व इन्होंनेे सिंधु नदी पार कर भारत में लौटना शुरू कर दिया था। कतिपय जाट समुदाय पूर्व की ओर मुलतान और नमक की पहाड़ियों के पास आकर बस गये।

जाट हैं वास्तविक यादव

कई इतिहासकारों ने इस तथ्य को स्वीकार किया है कि जाट असल में यदुवंशीय ही हैं. यदु शब्द भाषा की विसंगतियों के कारण यदु, यादव, याद और जात से होता हुआ जाट पर आ पहुंचा. जाटों द्वारा यादव शब्द का उपयोग पूरी तरह छोड़ देने के बाद अहीर नाम के एक कदाचित निम्न कुल के लोगों ने  स्वयं को यादव घोषित कर दिया. जबकि वास्तविकता यही है कि जो जाति आज स्वयं को यादव कहती है वह यादव नहीं हैं अपितु वह अहीर हैं. अहीर लोग अपने नाम के सम्मुख यादव का उपयोग अवश्य करते हैं, किन्तु राजकीय अभिलेखों में वे स्वयं को अहीर ही लिखते हैं. तात्पर्य यह कि यादव पहले भी जाट था और आज भी जाट ही हैं.

जाट शुद्ध आर्य हैं

जाट  लोग हमेशा साहसी, परिश्रमी तथा सैनिक वृत्तियों के योग्य रहे हैं। इसी कारण ईरान तथा मौर्य सम्राटों की सेना में प्रवासी सेवक अथवा वैतनिक सैनिकों के रूप में सेवा करते रहे हैं। पांचवीं शताब्दी में जाट पश्चिमी सीमाओं पर आबाद थे और उन्होंने हूणों को रणक्षेत्र में परास्त किया।
‘अब इस विषय मेें इतिहासकार बहुत हद तक एकमत हैं कि जाट आर्य-वंशी हैं। वे अपने साथ कुछेक संस्थाएं लेकर आये थे, जिनमें सबसे महत्वपूर्ण है पंचायत-पांच श्रेष्ठ व्यक्तियों की ग्राम सभा, जो न्यायाधीशों और ज्ञानी पुरुषों के रूप में कार्य करती थी। प्रत्येक जाट ग्राम एक ही थोक के ऐसे लोगों का छोटा-सा गणराज्य होता था, जो आपस में एक दूसरे से पूरी तरह से जुड़ होते थे और जो किसान, जुलाहा, कुम्हार, चमार, भंगियों का काम करके रोजी कमाते थे। किसी भी जाट ग्राम का राज्य के साथ सम्बन्ध राजस्व के रूप में एक नियत राशि देने वाली अर्ध-स्वायत्त इकाई का-सा होता था।

जाट धार्मिक पाखंडों के सामने नहीं झुके

स्वतंत्रता तथा समानता की जाट-भावना ने ब्राह्मण-प्रधान हिंदू धर्म के पाखंडों के सम्मुख झुकने से स्पष्ट इंकार कर दिया और इसके बदले उन्हें विशेषाधिकार प्राप्त ब्राह्मणों की भर्त्सना  का शिकार होना पड़ा।…ऊंची जातियों के हिंदुओं के द्वारा की गयी जाट की अवमानना जाट को उसकी अपनी दृष्टि में जरा भी नहीं गिरा पायी।
जाट जन्मजात श्रमिक एवं योद्धा था। वह कमर में तलवार बांधकर खेत में हल चलाता था। अपने घरबार और समाज की रक्षा के लिए वह क्षत्रिय की अपेक्षा कहीं अधिक लड़ाइयां लड़ता था। क्योंकि किसी बाहरी आक्रमण के समय क्षत्रिय के विपरीत जाट शायद ही कभी अपना गांव, घरबार छोड़कर भागता हो। और यदि किसी आक्रमणकारी द्वारा जाटों के साथ छेड़खानी की जाती या उसकी स्त्रियों के साथ बदतमीजी की जाती, तो वह उन आक्रमणकारियों के काफिलों को लूटकर अपना विरोध प्रकट करता।…उसकी अपनी खास ढंग की देशभक्ति विदेशियों के प्रति शत्रुतापूर्ण और साथ ही अपने उन देशवासियों के प्रति दयापूर्ण, यहां तक कि तिरस्कारपूर्ण थी, जिनका भाग्य बहुत-कुछ उनके साहस और धौर्य पर अवलंबित था।’ (खुशवंत सिंह-हिस्ट्री आफ द सिक्ख)

जाटों ने विदेशी आक्रान्ताओं को देश से निकाला

चीनी यात्री ह्वेनसांग ने सिंध का वर्णन करते समय जाटों का काफी उल्लेख किया है। भारत का इतिहास बताता है कि जाट जाति ने अपने भुजबल से सभी विदेशी आक्रांताओं से डटकर लोहा लिया। यद्यपि उनका कोई संगठित प्रांत अथवा साम्राज्य न था। उनके पास कोई किला न था, फिर भी उन्होंने केवल छोटे-छोटे कबीलों को मिलाकर ही इन आक्रांताओं को देश से बाहर निकालने में अग्रणी भूमिका निभायी।
भारत के अंतिम सम्राट पृथ्वीराज की पराजय के बाद जाटों ने सन् 1192 में सुलतान कुतुबुद्दीन एबक के विरुद्ध युद्ध का बिगुल बजाया था। उन्होंने देश की मान मर्यादा की रक्षा के लिए कभी अपने प्राणों का मोह नहीं किया।
सुलतान मुहम्मद बिन तुगलक ने जानबूझकर हिंदू किसानों पर जब अनावश्यक कर बढ़ा दिये, तो जाटों ने ही उसकी इस नीति का जमकर विरोध किया था और सैनिक संघों का गठन कर सुलतान के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया था। यद्यपि सुलतान की विशाल सेना के सामने जाट कोई विशेष सफलता प्राप्त नहीं कर सके, लेकिन इसके बावजूद भी उनका हौंसला नहीं टूटा और वे निरंतर कई वर्षों तक सुलतान की सेना के साथ छद्म युद्ध करते रहे और सुल्तान की सेना को छकाते रहे। अप्रशिक्षित व असंगठित जाटों ने सुलतान के बीस हजार सैनिकों को मार डाला था। सुलतान की सेना ने जाटों का सफाया तो कर दिया, किंतु उसे इस युद्ध की बड़ी कीमत चुकानी पड़ी। जाटों के मुकाबले में उसके पांच गुना सैनिक खेत रहे थे। जाटों को परास्त करने के बाद सुलतान ने जाटों के परिवारों को खोज-खोजकर नष्ट करना शुरू कर दिया। उसने जाटों के परिवारों पर बहुत ही जुल्म ढाये। जाटों का जो परिवार जहां कहीं भी मिला, उसे नष्ट कर दिया गया।

जाटों ने बाबर को भी छकाया

मुगलिया सल्तनत के संस्थापक बाबर को भी जाटों से कई बार टक्कर लेनी पड़ी थी। बाबर को इन जाटों ने इस बुरी तरह से छकाया था कि उसे जाटों का सफाया करने के लिए भारी सेना भेजनी पड़ी थी। दिसम्बर 29, सन् 1525 ई. को लिखे बाबरनामा में वह अपने संस्मरण में लिखता है-‘यदि कोई हिंदोस्तान जाए, तो उसे असंख्य घुमक्कड़ जत्थों के रूप में जाट और गूजर पहाड़ी तथा मैदानी भागों में बैल और भैंस लूटने के लिए भीड़ के रूप में इकट्ठे मिलेंगे। वे अभागे बड़े ही मूर्ख और निष्ठुर होते हैं।…’