भारत की पहली आजाद हिन्द सरकार के राष्ट्राध्यक्ष राजा महेंद्र प्रताप सिंह

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1 दिसंबर 2015 को राजा महेंद्र प्रताप के नेतृत्व में काबुल अफगानिस्तान में गठित की गयी पहली आजाद हिन्द सरकार 

अभी हाल ही में भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने पूरे राष्ट्र को याद दिलाया कि सुभाष चन्द्र बोस भारत की पहली सरकार के प्रधानमंत्री थे. उन्होंने 1943 में सिंगापूर में आजाद हिन्द सरकार बनाई थी. लेकिन उससे भी लगभग 3 दशक भारत के एक सपूत ने काबुल अफगानिस्तान में अखंड भारत की पहली आजाद हिन्द सरकार का गठन किया गया था. भारत के उस सपूत का नाम था राजा महेंद्र प्रताप सिंह. भारत की उस पहली आजाद हिन्द सरकार बनने का इतिहास भी काफी संघर्षों भरा और प्रेरणादायी है.

राजा महेन्द्र प्रताप सिंह अंग्रेजों से बुरी तरह नफरत करते थे। इसी कारण वे अंग्रेजों की आंखों में खटकते थे। राजा महेन्द्र प्रताप सिंह ने कसम खायी, थी, ‘‘मैं अंग्रेजी सत्ता को देश से समूल उखाड़ फेंकूंगा।’’ 1914 में अंग्रेजों और जर्मनों के बीच प्रथम विश्व युद्ध छिड़ गया। अमेरिका अंग्रेजों का साथ दे रहा था। राजा महेन्द्र प्रताप सिंह ने निश्चय किया कि वे इस अवसर का उपयोग भारत को आजाद कराने के लिए करेंगे। वे स्थिति का अध्ययन करने के लिए जर्मनी जा पहुंचे। राजा साहब आशंका थी कि वे शायद अब कभी भारत न लौट सकें, अतः वे अपनी सारी सम्पत्ति का एक शैक्षणिक हितार्थ ट्रस्ट बना गये थे। राजा साहब जर्मनी के शासक कैसर से मिले। सम्राट ने राजा साहब का दिल से स्वागत किया। राजा महेन्द्र प्रताप सिंह ने सम्राट से भारत को आजाद कराने की योजना पर लम्बी वार्ता की। सम्राट कैसर राजा साहब का पूरा साथ देने के लिए तैयार हो गया। उसने आश्वासन दिया कि वह भारत के स्वाधीनता संग्राम के लिए 25 हजार सैनिकों की सेना उपलब्ध करायेगा। उसने अफगानिस्तान के बादशाह हबीबुल्लाह और तुर्की के बादशाह तथा नेपाल नरेश सहित भारत के 26 नरेशों के नाम पत्र लिखकर उन्हें राजा महेन्द्र प्रताप सिंह का सहयोग देने के लिए कहा। जर्मन सरकार के प्रधानमंत्री चांसलर हालबेग ने भी राजा महेन्द्र प्रताप सिंह को एक पत्र दिया था जिसमें यह आश्वासन दिया गया था कि जर्मन सरकार राजा महेन्द्र प्रताप सिंह द्वारा भारत की स्वाधीनता के लिए की जाने वाली सभी प्रवृत्तियों का समर्थन करेगी।

राजा साहब तुर्की तुर्की के बादशाह से भी मिले। बादशाह ने राजा साहब को पूरी सहायता देने का वादा किया। इसके बाद राजा साहब ने अफगानिस्तान के लिए प्रस्थान किया। रूसी सेनाओं द्वारा कदम-कदम पर खड़े किये गये खतरों को पार कर राजा महेन्द्र प्रताप सिंह ने 2 अक्तूबर 1915 को काबुल में प्रवेश किया। राजा साहब का वहां तोपों से राजकीय सम्मान किया गया। बादशाह और राजा साहब के बीच एक संधि हुई। संधि में राजा महेन्द्र प्रताप सिंह को हर प्रकार की सहायता देने और भारत की आजादी के लिए एक, अंग्रेजों के साथ संघर्ष करने में सक्षम तथा अपनी सेना वाली सरकार गठन करने की बात स्वीकार की गयी थी। इस संधि में अस्थायी सरकार के लिए 50 हजार सैनिकों से युक्त एक सशक्त सेना का निर्माण करना स्वीकार किया गया। एक दिसम्बर 1915 को राजा महेन्द्र प्रताप सिंह ने अफगानिस्तान में अस्थायी आजाद हिंद भारत सरकार का गठन किया, जिसके राष्ट्रपति वे स्वयं थे। इस सरकार में मौलाना बरकतउल्लाह खां प्रधानमंत्री और मौलाना हबीबुल्लाह खां गृह मंत्री बनाये गये। संधि के अनुसार बादशाह ने भारतीय अस्थायी सरकार को 15 हजार सैनिकों से सुसज्जित छोटी सी सेना भी राजा साहब के हवाले कर दी। तय हुआ कि जब जर्मनी सेनाएं भारत पर आक्रमण करने के उद्देश्य से अफगानिस्तान आयेंगी, तो अफगानी सेनाएं उनके साथ मिलकर भारत पर आक्रमण करेंगी।

जब ब्रिटिश सरकार को पता चला कि अफगानिस्तान के सहयोग से राजा महेन्द्र प्रताप सिंह ने अस्थायी सरकार का गठन कर लिया है, तो अंग्रेजों ने अफगानिस्तान सरकार पर दबाव डाला कि राजा महेन्द्र प्रताप सिंह को किसी भी प्रकार की सहायता न दी जाए। किंतु बादशाह अंग्रेजों के दबाव में नहीं आया और अंग्रेजों ने षड्यन्त्र रच बादशाह की हत्या करा दी। मृत बादशाह का छोटा भाई नसीरुल्लाह अफगानिस्तान का नया शाह बना। उसने अंग्रेजों से डरकर राजा महेन्द्र प्रताप सिंह के साथ हुई संधि से कदम खींच लिये।

जर्मन सम्राट कैसर के पत्रों को भारत के नरेशों तक भिजवा दिया गया था। इन पत्रों को देश के सभी नरेशों तक पहुंचाने का कार्य आचार्य कृपलानी ने किया। देश के अधिकांश नरेश दिल से राजा साहब का साथ देने का इरादा रखते हुए भी भी अंग्रेजों के डर से जर्मन सम्राट कैसर के पत्र पर चुप लगा गये, कितु सम्राट कैसर के पत्र के उत्तर में कश्मीर के महाराजा हरीसिंह तथा नाभा के राजा ने राजा महेन्द्र प्रताप सिंह को आचार्य कृपलानी के माध्यम से सन्देश भेजा कि वे उन्हें हर प्रकार की सहायता देने के लिए तैयार हैं।

नसीरुल्लाह के बाद अमानुल्लाह अफगानिस्तान के शाह बने। उन्होंने राजा महेन्द्र प्रताप सिंह से हुई संधि के अनुसार 4 मई 1919 को अंग्रेजों के साथ युद्ध छेड़ दिया। किंतु समय पर जर्मनी की सेनाएं युद्ध में शामिल होने के लिए न पहुंच सकीं। और यह अभियान सफलता प्राप्त नहीं कर पाया। जब राजा महेन्द्र प्रताप सिंह ने देखा कि समय पर जर्मन सरकार ने उन्हें सहायता नहीं दी, तो उन्होंने रूस सरकार से सम्बन्ध स्थापित कर अपने लक्ष्य को प्राप्त करने का प्रयास किया। राजा महेन्द्र प्रताप सिंह रूस पहुंचे। लेकिन वहां जाकर उन्हें पता चला कि रूस सरकार ब्रिटिश सरकार से किसी प्रकार का विरोध नहीं लेना चाहती थी। राजा महेन्द्र प्रताप सिंह पुनः जर्मन सम्राट से जाकर मिले।

इसके कुछ दिन बाद ही रूसी क्रांति ने सत्ता परिवर्तन कर दिया। राजा साहब फिर रूस गये और लेनिन से मिले। लेनिन ने राजा साहब का दिल से स्वागत किया। लेकिन वे राजा साहब की सहायता के लिए तैयार नहीं हुए। निराश होकर राजा साहब फिर काबुल आ गये।

राजा महेन्द्र प्रताप सिंह अफगानिस्तान से तिब्बत होते हुए, चीन पहुंचे। वहां उनका भारी राजकीय स्वागत किया गया। जापान सरकार उनकी सरकार को मान्यता  दे चुकी थी, अतः राजा साहब को आशा थी कि जापान सरकार उनकी अवश्य सहायता करेगी। अतः सहायता की आशा में राजा साहब जापान पहुंच गये। जापान अंग्रेजों का जर्मनी के बराबर का शत्रु था। जापान में राजा साहब निष्कासित जीवन जी रहे प्रसिद्ध भारतीय क्रांतिकारी रास बिहारी बोस से मिले और उनसे देश की आजादी के लिए योजना पर विस्तार से वार्तालाप किया और भारत की अस्थायी सरकार का कार्यालय टोकियो में स्थापित किया। वहां से वे फ्रांस के राजदूत के सहयोग से पीकिंग पहुंचे और वहां के राजनेताओं से भारत को सहायता का वचन लिया। इस समय चीन और ब्रिटिश सेनाओं में टकराव की स्थिति बनी हुई थी। राजा साहाब वहां से मंगोलिया होते हुए पुनः रूस पहुंचे और लेनिन से मिले। वहां से वे एक बार फिर अफगानिस्तान पहुंचे। सन् 1918 में वे फिर जर्मनी के सम्राट कौसर से मिले।

1925 में चीन का अंग्रेजों से युद्ध छिड़ गया। राजा साहब ने खुलकर चीन का पक्ष लिया। चीन सरकार ने राजा साहब को धन और हथियारों  से काफी सहायता दी। राजा साहब यहां से कई अन्य देशों में गये और भारत का पक्ष रखा। सन् 1927 में आप अमेरिका पहुंचे। इसके बाद वेे जापान पहुंचे और ‘पान एशियाटिक कांफ्रेस’ में भाग लिया। अंग्रेज राजा महेन्द्र प्रताप सिंह को सर्वोच्च राजद्रोही कहते थे। उनके जासूस हर समय उनका पीछा करते फिर रहे थे। राजा साहब को कई बार मारने का भी प्रयास किया गया, किंतु वे सौभाग्य से हर बार बच निकले।

सन् 1939 में जापान में आपने ‘एक्जीक्यूटिव बोर्ड ऑफ इण्डिया टू फ्री इण्डिया विद फारेन हैल्प’ नामक एक संस्था की स्थापना की। राजा साहब इसके प्रधान, रास बिहारी बोस इसके उप प्रधान तथा जबलपुर निवासी आनन्द मोहन सहाय को इस संस्था का महासचिव नियुक्त किया गया।

द्वितीय विश्व युद्ध में राजा साहब जापानी सेना द्वारा बंदी बनाये गये भारतीय सैनिकों की एक सशक्त सेना बनाकर उस सेना के सहयोग से अंग्रेजों से लड़ना चाहते थे। जबकि जापान सरकार चाहती थी कि राजा साहब उन सभी युद्ध बंदियों को जापानी सेना के झण्डे तले लड़ने के लिए राजी करें। राजा साहब ने जापान सरकार के इस प्रस्ताव को अस्वीकार करते हुए कहा, ‘‘आपको भारतीय सैनिकों का सहयोग ही तो चाहिए। मैं आपको सहयोग दूंगा। मैं भारतीय सैनिकों की एक सेना बनाऊँगा जो आपकी सेना के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ेगी। मेरे देश के सैनिक मेरे देश के लिए लड़ेंगे। उनका अपना झण्डा और अपनी सरकार होगी।’’

जापान सरकार ने राजा साहब का यह प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया। हालांकि बाद में जापान सरकार ने सुभाष चन्द बोस से राजा साहब की शर्तों पर ही सेना गठित करने की संधि की। जापान मित्र राष्ट्रों से हार गया। राजा साहब को भी गिरफ्रफ्तार किया गया। लेकिन भारतीय नेताओं के आग्रह पर उन्हें आजाद कर दिया गया। भारत में स्वतन्त्रता आन्दोलन पूरी तरह से अपनी जड़ें जमा चुका था। ब्रिटिश लेबर पार्टी इन हालातों में भारत पर से अपना कब्जा छोड़ने के पक्ष में थी। इन परिस्थितियों में अंग्रेजी सरकार ने राजा महेन्द्र प्रताप सिंह को भारत लौटने की अनुमति दे दी।

9 अगस्त 1946 को राजा महेन्द्र प्रताप सिंह भारत आये। उन्होंने पूरे 31 साल 6 माह बाद भारत में पुनः कदम रखा था। आपने भारत भूमि पर कदम रखने के बाद सबसे पहले वर्धा जाकर महात्मा गांधी से मुलाकात की। गांधी जी और जवाहर लाल नेहरु उनसे गले मिले और उन्हें राष्ट्रीय कांग्रेस कार्य कारिणी की बैठक में ले गये। समूचे राष्ट्र ने अपने उस वीर योद्धा का विजेता की तरह स्वागत किया।

देश की आजादी के बाद राजा साहब ने ग्राम्य युवा पीढ़ी की उच्च शिक्षा और समाज सुधार के लिए प्राणप्रण एक कर दिया। देश में पहली बार उन्होंने अपने प्रयास से तकनीकी विद्यालयों की स्थापना की थी। उन्होंने देश में शिक्षा के प्रति अलख जगाने और सामाजिक क्रांति लाने के लिए ‘वर्ल्ड फैडरेशन’ नामक मासिक पत्र भी निकाला था। राजा महेन्द्र प्रताप सिंह को आर्यान पेशवा की उपाधि दी गयी थी। उन्होंने राष्ट्र धर्म, मानव धर्म, प्रेम धर्म पर लगभग 50 से अधिक पुस्तकें लिखी थीं। राजा महेन्द्र प्रताप सिंह वर्ष 1957 और 1962 में दो बार लोक सभा के सदस्य चुने गये। उन्होंने देश के पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी के सामने चुनाव जीतकर उनकी जमानत जब्त करा दी थी। राजा महेन्द्र प्रताप सिंह ने इण्डियन फ्रीडम फाइटर एसोशियेशन और अखिल भारतवर्षीय जाट महासभा के अध्यक्ष पद को भी सुशोभित किया। राजा महेन्द्र प्रताप सिंह ने देश और देश के युवाओं में शिक्षा के प्रति जागरूकता भरने के लिए जो अथक और चिरस्मररणीय प्रयास किये, देश उनके लिए  राजा साहब का सदा ऋणी रहेगा। राजा साहब का निधन 29 अप्रैल 1979 को हुआ।

राजा महेन्द्र प्रताप मुरसान, अलीगढ़ रियासत राजा महेन्द्र प्रताप सिंह ने बी. ए. तक की शिक्षा पायी। राज कार्य की अधिकता के कारण वे आगे नहीं पढ़ सके। चारों तरफ अंग्रेजों के अत्याचारों की गूंज थी। जिस कारण सम्पूर्ण भारत में अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह की चिंगारियां सुलग रही थीं। महेन्द्र प्रताप सिंह के दिल में भी देश को आजाद कराने की इच्छा हिलोरें लेने लगी। उन्होंने सम्पूर्ण भारत का भ्रमण कर भारत की दुद्रशा तथा भारत के सामाजिक संगठनों के बारे में विस्तार से जानकारी ली। उन्होंने देखा कि देश भर में छुआछूत तथा अशिक्षा का भारी बोलबाला है। उन्होंने निर्णय कर लिया कि वे अशिक्षा तथा छुआछूत को भगाकर रहेंगे।

राजा महेन्द्र प्रताप सिंह ने सपत्नीक जिनेवा, वियना, पेरिस, लन्दन, मासलीज, बुडापेस्ट, बर्लिन, रोम, फिलाडेल्फिया, अमेरिका तथा कनाडा के ब्रुसेल्स, ओटावा, टोरेन्टो और वाशिंगटन आदि प्रसिद्ध नगरों का भ्रमण किया। इस यात्रा में राजा महेन्द्र प्रताप सिंह ने देखा कि भारत और धनी पश्चिमी देशों की आर्थिक स्थिति में जमीन-आसमान का अन्तर है। भारत की अपेक्षा वहां तकनीकी शिक्षा पर बहुत जोर था। उन्होंने निर्णय किया कि वे भारत के नौजवानों के लिए तकनीकी शिक्षा की व्यवस्था करेंगे। देश लौटते ही राजा महेन्द्र प्रताप सिंह ने अपने समस्त रिश्तेदारों तथा पंडित मदन मोहन मालवीय की उपस्थिति में अपने पांच गांव तथा दो विशाल भवन दान में देकर प्रेम महाविद्यालय की स्थापना की, जिसमें छात्रों को निःशुल्क तकनीकी ज्ञान देने की सुविधा थी। इसके अतिरिक्त उन्होंने वृन्दावन में अपना एक विशाल भवन दान देकर एक गुरुकुल की स्थापना की और गांवों में विद्या का प्रचार करने के लिए सैकड़ों विद्यालय और खोले। उन्होंने समाज में एकरूपता और सामाजिक समानता लाने तथा छुआछूत का भेदभाव मिटाने के लिए समाचार पत्र का प्रकाशन भी किया। राजा महेन्द्र प्रताप सिंह के सद्प्रयासों से क्षेत्र में सामाजिक परिवर्तन की लहर दौड़ गयी। उनके द्वारा स्थापित प्रेम महाविद्यालय ने कालांतर में अनेकों स्वाधीनता सेनानी प्रदान किये। उन्होंने लोगों के दिलों से छुआछूत के विष को बाहर निकाल फेंकने के लिए भंगियों तथा टमटा जाति के अति त्याज्य लोगों के घर भोजन किया और उन्हें अपने साथ खाना खिलाया।

राजा महेन्द्र प्रताप सिंह के दो सन्तानें हुईं-बड़ी पुत्री-जिसका नाम उन्होंने भक्ति रखा और छोटा पुत्र-जिसका नाम उन्होंने प्रेम प्रताप रखा।

उल्लेखनीय है कि उनकी लिखी पुस्तकें इतनी लोकप्रिय हुईं कि उनकी मांग विदेशों तक थी। जब राजा साहब लेनिन से मिले, तो उन्होंने लेनिन को अपनी पुस्तक ‘प्रेम धर्म’ भेंट की, तो लेनिन ने छूटते ही कहा, ‘‘मैं आपकी यह पुस्तक पहले ही दो बार पढ़ चुका हूं।’’