1857 की क्रांति के नायक – 1857 में प्रथम स्वाधाीनता संग्राम के समय अंग्रेजी सेनाओं में कार्यरत हांसी के जवानों ने मेरठ और दिल्ली में अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह के समाचार अपने क्षेत्र तक पहुंचाये थे। विद्रोह का समाचार मिलने के बाद हांसी क्षेत्र के लोगों में भी अंग्रेजी शासन के विरुद्ध बगावत करने की भावना बलवती हो उठी। अंग्रेज अधिकारियों को जब पता चला कि हांसी के सैनिक मेरठ-दिल्ली की बगावत के समाचारों को क्षेत्र में फ़ैला रहे हैं, तो उन्होंने उनकी छुट्टी रद्द कर दी और उन्हें तुरंत अपनी सैनिक टुकड़ियों में लौट जाने का आदेश जारी कर दिया।
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हांसी के जाट क्रांतिकारियों ने अंग्रेजों के विरुद्ध शुरू किया युद्ध
हांसी के सैनिकों ने क्षेत्र के लोगों को संगठित कर अंग्रेजों को हांसी से मार भगाना शुरू कर दिया। जब हांसी में तैनात हरियाणा लाइट इन्फ़ैण्ट्री के जवानों को देसी सैनिकों द्वारा क्रांति करने का पता चला, तो वे भी विद्रोह कर इन सैनिकों के साथ जा मिले और क्रांति के लिए तैयार हो गये। देखते ही देखते हांसी के सैनिकों के नेतृत्व मेें नगरों-गांवों के लोग अपने परम्परागत हथियार जैसे जेली, बरछी, बल्लम आदि लेकर निकल पड़े और उन्होंने हांसी पर आक्रमण कर दिया।
हांसी पर जाट क्रांतिकारियों का अधिकार
क्रांतिकारियों ने हांसी शहर को चारों ओर से घेर लिया और अंग्रेजों पर आक्रमण शुरू कर दिये गये। क्रांतिकारियों ने अंग्रेजों के बंगले जला डाले। कचहरी, चुंगी, सारे सरकारी दफ़्तर जला दिये। सरकारी खजाना लूट लिया गया। अंग्रेज डर कर हांसी से भाग गये। किंतु अंग्रेजाें की सहायता के लिए महाराजा बीकानेर की सेना के आ जाने से अंग्रेजों की शक्ति बढ़ गयी और वे क्रांतिकारियों पर हावी हो गये।
हांसी के सभी युवा-वृद्ध ने हथियार उठाये
निकटवर्ती गांव रोहनात के लोगों को बीकानेर की सेनाओं के हांसी की ओर बढ़ने का समाचार मिला, तो गांव के सारे युवक-अधोड परम्परगत हथियार लेकर क्रांतिकारियों का साथ देने के लिए हांसी के लिए दौड़ पड़े। इन गांव वासियों के पास जो सबसे विशेष वस्तु थी, वह था उनका परम साहस। और उसी साहस के बल पर जाट क्रांतिकारी बीकानेर की सेना से जा भिड़े। दोनों पक्षों में बड़ा ही भयंकर युद्ध हुआ। दोनों ओर से सैनिकों की भारी क्षति हुई। बीकानेर की सेना के पास अत्याधाुनिक हथियार होने के उपरांत भी क्रांतिकारी और जाट किसी भी तरह से इस सेना के दबाव में नहीं आ रहे थे।
साहस के लड़कर हुई जाटों और क्रांतिकारियों की जीत
उसी समय क्रांतिकारियों की सहायता के लिए झज्जर के नवाब की बागी टुकड़ी और दादरी से विद्रोही सैनिक आ गये। इनके आ जाने से क्रांतिकारियों में नया जोश भर गया और वे बीकानेर की सेना पर टूट पड़े। बीकानेर की सेना इस आक्रमण की ताव न ला सकी और युद्ध के मैदान से पीठ दिखाकर भाग निकली। इस मोर्चे पर क्रांतिकारियों और जाटों की जीत हुई।
अंग्रेजों की तोपों से क्रांतिकारियों को हुई भारी क्षति
बीकानेर की सेना की पराजय से क्रांतिकारियों का उत्साह दोगुना हो गया था। इस पर बीकानेर नरेश ने दोगुनी सेना और पांच तोपें हांसी पर अधिकार करने के लिए भेजीं। बीकानेर की सेना के हांसी पर पुनः हमला करने के लिए आने का समाचार मिलते ही पूरे क्षेत्र के जाट और दूसरे लोग फि़र मैदान में आ डटे। दोनों पक्षों में एक बार फि़र भयंकर युद्ध आरम्भ हो गया। किंतु इस बार अंग्रेजों का पलड़ा भारी रहा। बीकानेर की सेना की तोपों के मुकाबले में जाटों और क्रांतिकारियों के पास कोई हथियार नहीं था। तोपों की मार के सामने क्रांतिकारी और उनके साथी जाट निस्सहाय हो गये। जाटों ने दुश्मन के तोपखाने पर हमला कर उसे नष्ट करने का भरसक प्रयास किया, किंतु वे केवल दो तोपों को ही नष्ट कर सके। शेष तीनों तोपें क्रांतिकारियों और जाटों का तेजी से सफ़ाया करती रहीं। इस युद्ध में क्रांतिकारियों की भारी क्षति हुई। फि़र भी जब तक उनके पक्ष का प्रत्येक वीर शहीद नहीं हो गया, वे दुश्मन के सामने डटे रहे।
अपने ही भाईयों से हारे जाट क्रांतिकारी
क्रांतिकारियों के अपने ही भाई अंग्रेजों को हारी हुई जंग जिताने में सफ़ल रहे। यह जीत अंग्रेजों की जीत नहीं थी, यह तो बीकानेर के तोपखाने की जीत थी, जिसके सामने क्रांतिकारी बेबस हो गये थे। फि़र भी उन्होंनेे अंग्रेजों के दांत खट्टे कर दिये थे। अनेकों अंग्रेज अधिाकारी मार डाले गये थे। क्रांतिकारियों ने अंग्रेजी हुकूमत के कादारों के घर फ़ूंक डाले।
हांसी के जाट क्रांतिकारियों की ऐतिहासिक शहादत
हांसी की क्रांति में सबसे अधिक योगदान राहनात गांव का रहा। क्रांति शमन होने के बाद अंग्रेजों ने अपने अत्याचारों का नमूना दिखाते हुए सभी गांव वालों सहित इस गावं को, क्रांति में भाग लेने के दण्डस्वरूप जलाकर तोपों के गालों की सहायता से भस्म कर दिया था। निकटवर्ती गांवों जमालफ़र, हाजिमफ़र, भाटल व अलीफ़र के विद्रोहियों को पकड़कर हांसी लाया गया और उन्हें सड़क पर लिटाकर चूना कूटने के भारी पत्थर से कुचलकर मारा गया। अनेकों क्रांतिकारी उस स्थान पर शहीद हुए। सड़क दूर तक क्रांतिकारियों के खून से लाल हो गयी थी, वर्षों तक लाल रही। यह सड़क आज भी लाल सड़क के नाम से कुख्यात है जो उस स्थान पर हुई शहादतों को याद दिलाती है।
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