जाटों की वीर गाथा | जाट शक्ति से विचलित औरंगजेब

Please Share!

जाटों की वीर गाथा हमारी नयी पीढ़ी को बताती है कि कैसे उनके पूर्वजों ने अपने आत्मसम्मान से समझौता न करते हुए विदेशी आक्रान्ताओं को उनकी औकात याद दिला दी. वीर राजाराम जाट हों, ठाकुर चूड़ामणि हों, महाराजा सूरजमल या वीर गोकुला, इन सब ने भारत पर चढ़ती चली आ रही मुग़लों की काली परछाई से भारत को आजाद कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. आज हम बात करेंगे वीर गोकुला की. कैसे वीर गोकुला ने जाटों की एक सेना बनाकर औरंगजेब को झुकने पर मजबूर कर दिया था.

जाटों की वीर गाथा कहती है वीरवर गोकला की महानता

परम्पराएं व मर्यादाएं टूटने का यह एक ऐसा ज्वलंत उदाहरण है कि जिसकी ओर इतिहाकारों का ध्यान ही नहीं गया। उस समय के ढाई सौ वर्ष के मुगलों के इतिहास का यह पहला अवसर था कि कोई बादशाह किसी मामूली से जमींदार या किसान का सामना करने के लिए स्वयं ही युद्ध के लिए निकला था। जाट शक्ति से विचलित औरंगजेब एक मामूली से किसान जाट वीर गोकला जाट से संधि करने का प्रयास कर रहा था।और यह उससे भी विचित्र बात है कि उस मामूली किसान ने उस विशाल साम्राज्य के स्वामी शहंशाह से डरे बिना उससे सन्धि करने के इन्कार कर दिया था। इस प्रकार दोनों पक्षों में संधि और समझौते की सभी सम्भावनाएं एक साथ ही समाप्त हो गयीं। स्थिति बिगड़ती गयी। स्वयं सम्राट औरंगजेब ने 28 नवम्बर 1669 को एक बड़ी सेना और बड़ा तोपखाना लेकर अपने इस विकट प्रतिद्वंद्वी से निपटने के लिए प्रस्थान किया।

जाटों की बहादुरी से विचलित हुआ औरंगजेब

औरंगजेब दिल्ली से चलकर 28 दिसम्बर 1669 को मथुरा जा पहुंचा। यह ठीक ऐसा था जैसे किसी मक्खी को मारने के लिए भारी तोप का प्रयोग किया जाए। 4 दिसम्बर को हसनअली खां ने ब्रह्मदेव सिसोदिया की सहायता से गोकला और उसके समर्थकों के गांवों पर धावा बोल दिया। शाही सेना में 2000 घुड़सवार, 1000 बंदूकची, 1000 तीरंदाज, 25 तोपें और एक हजार खाई खोदने वाले शामिल थे। जाट बड़े ही उत्साह और साहस के साथ लड़े, किंतु विशाल शाही सेना ने जाटों की तीन गढ़ियों रेवाड़ा, चन्द्ररख और सरखरू को घेर लिया। शाही तोपों और बंदूकों के आगे ये छोटी-छोटी गढ़ियां ज्यादा देर न टिक सकीं और जल्दी ही टूट गयीं। फिर भी जाट बड़े ही अदम्य उत्साह से लड़े।

गोकुला के धैर्य ने जाट संगठन को मजबूत किया

गोकुल सिंह के विरुद्ध किया गया यह अभियान उन आक्रमणों में सबसे विशाल था, जो बड़े-बड़े राज्यों और वहां के राजाओं के विरुद्ध होते आये थे। उस वीर के पास न तो बड़े-बड़े दुर्ग थे, न अरावली की पहाड़ियां और न ही महाराष्ट्र जैसा विविधता-पूर्ण भौगोलिक प्रदेश। वे गंगा-यमुना के मैदानों में शत्रु से जूझ रहे थे। इन अलाभकर स्थितियों के बावजूद उन्होंने जिस धैर्य और रणचातुर्य के साथ एक शक्तिशाली साम्राज्य की केन्द्रीय शक्ति का सामना करके बराबरी के परिणाम प्राप्त किये, वह सब कम विस्मयजनक नहीं है। गोकला का हौसला अभी पस्त नहीं हुआ था। वह अपने संगठन की शक्ति बढ़ाने में जुटा था।

दूसरी बार उसे कुचलने के लिए और अधिक संख्या में शाही सेना भेजी गयी। गोकुल सिंह ने जाटों और गूजरों की बीस हजार की विशाल सेना के साथ शाही सेना का मुकाबला किया। गोकला और उसका चाचा उदयसिंह अद्भुत वीरता के साथ मुगल सेना के साथ लड़े। उनके पास जोशीले सैनिक थे, किंतु उनके पास मुगलों की तोपों का कोई जवाब नहीं था। तीन दिन की घमासान लड़ाई के बाद तिलपत का पतन हो गया। दोनों पक्षों को भारी क्षति उठानी पड़ी। चार हजार मुगल सैनिक और गोकला के पक्ष के पांच हजार सैनिक हताहत हुए। गोकला और उसके चाचा उदयसिंह बंदी बना लिये गये।

धर्म रक्षा हेतु गोकला  की शहादत

गोकला और उदयसिंह को बंदी बनाकर आगरा लाया गया। वहां उनसे मुसलमान बनने के लिए कहा गया, लेकिन गोकला ने मुसलमान बनने से साफ इंकार कर दिया। जब औरंगजेब को पता चला कि गोकुल सिंह मुस्लिम धर्म अपनाने केा तैयार नहीं है, तो वह स्वयं गोकुल ं के पास चलकर आया और उसने गोकुल सिंह और उसके साथ गिरफ्तार उसके जाट साथियों से मुस्लिम धर्म अपनाने के लिए कहा, लेकिन न तो इस पर गोकुल सिंह ही तैयार हुआ और न ही उसके जाट साथी। औरंगजेब ने गोकुल सिंह से कहा, ‘अब भी वक्त आ गया है कि तुम हमारा कहा मान लो। वर्ना तुम सबके टुकड़े-टुकड़े करके कुत्तों और चील कौवों को खिला दिये जाएंगे। और तुम्हारे लड़के-लड़कियों को मुसलमान बना दिया जायेगा।
गोकल सिंह के शरीर में भूचाल-सा उठ गया। गले से पैर तक की जंजीरें तड़ातड़ करके हिल उठीं। भभकते हुए बोला, ‘बेसहारा बच्चे तुझ जैसे शरीफजादे से और उम्मीद ही क्या कर सकते हैं। थू है तुझ पर।’ और उसने पूरी नफरत के साथ दीवाने आम में थूक दिया।
बादशाह का गुस्से के मारे बुरा हाल था। लेकिन वह कर भी क्या सकता था। वह अधिक से अधिक गोकला को मृत्यु दण्ड ही दे सकता था। और उसने यही किया भी। अगले दिन गोकल सिंह और उदय सिंह को जंजीरों में बांध कर आगरे की कोतवाली पर लाया गया। दोनों जाट वीरों को औरंगजेब ने एक बार फिर हिन्दू धर्म त्यागकर मुस्लिम धर्म अपनाने को कहा गया। किन्तु न तो गोकुल सिंह और न उसका चाचा उदय सिंह मौत को सामने देखने के बाद भी भयभीत हुए। औरंगजेब के संकेत पर जल्लाद ने दोनों को कुल्हाड़ी से टुकड़े-टुकड़े कर दिया।
गोकुल सिंह हिन्दू धर्म की रक्षार्थ शहीद हो गया और न केवल अपना नाम स्वर्ण अक्षरों में अंकित करा गया अपितु उसने मुगल साम्राज्य की ऐसी नींव हिलायी कि मुगल सल्तनत धीरे-धीरे पतन की ओर बढ़ती चली गयी।