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11 वर्ष की अवस्था में सन्यास लिया संत गंगादास ने
बचपन में ही माता-पिता की मृत्यु हो जाने से गंगाबख्श को संसार से विरक्ति हो गयी और केवल 11 वर्ष की आयु में ही वे सन्यासी बनकर घर से निकल गये। उन्होंने विष्णुदास उदासीन से दीक्षा लेकर अपना नाम गंगादास रख लिया। संत गंगादास अनेक स्थानों का भ्रमण करने के बाद काशी पहुंचे और 20 वर्षों तक काशी में रहकर उन्होंने संस्कृत साहित्य विशेषकर वेदांत ग्रन्थों का अध्ययन किया।
अंग्रेजी सत्ता को हटाने के लिए बने क्रन्तिकारी
वे अंग्रेजों से बहुत घृणा करते थे और भारत को गुलामी से मुक्त करने के उपायों पर विचार किया करते थे। उन्होंने अपने क्रांतिकारी काव्य के माध्यम से पूरे देश में घूम-घूमकर जनता में अंग्रेजों के विरुद्ध भावनाएं उभारने का महती कार्य करते हुए सम्पूर्ण भारत में स्वाधीनता की अलख जगायी।
रानी लक्ष्मीबाई को युद्ध की प्रेरणा दी संत गंगादास ने
संत गंगादास 1857 के स्वाधीनता संग्राम के समय ग्वालियर में प्रवास कर रहे थे। सारे देश में अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह के झण्डे बुलन्द किये जा रहे थे। एक वर्ष पूर्व झांसी राज्य को अंग्रेजों द्वारा विश्वासघात के बल पर अपने कब्जे में कर लिया गया था। रानी को केवल 5 हजार रुपया मासिक की पेंशन मिलती थी। वे एक साधारण स्त्री की भांति अपना समय गुजार रही थीं। जैसे ही मेरठ में विद्रोह हुआ, झांसी और उसके आसपास के सभी क्षेत्रों में भी उसकी प्रतिक्रिया हुई। उस समय झांसी में लगभग 70-80 अंग्रेज परिवार रहते थे। आम जनता और अंग्रेजी सेना के भारतीय सैनिकों ने अंग्रेज अफसरों को मारना-काटना शुरू कर दिया, तो अंग्रेज सिर पर पैर रखकर वहां से भाग गये। जब झांसी में कम्पनी का राज्य समाप्त हो गया और वहां अंग्रेजों का कोई राज्य प्रबन्धकर्ता न रहा, तो रानी ने झांसी का राज सम्भाल लिया। रानी ने विद्रोह में भाग नहीं लिया था। बल्कि वह अंग्रेजों के राज्य को उन्हीं के नाम पर संभाल रही थीं। इस पर भी अंग्रेजों ने रानी को विद्रोही करार दे दिया और दिल्ली पर अधिकार कर लेने के बाद, उन्होंने सर “यूरोज को भारी सेना के साथ झांसी फतह करने के लिए भेजा। रानी को इसकी भनक लग गयी। वह चिंतित हो उठी। उस समय रानी के पास कोई ऐसा सुलझा हुआ व्यक्ति नहीं था, जिससे वे उचित राय ले सकतीं। तभी रानी को पता चला कि ग्वालियर में गंगादास नामक एक संत गंगादास प्रवास कर रहे हैं, जो देश भर में क्रांति की संजीवनी प्रवाहित करते फिर रहे हैं। वह उनसे मिलने के लिए ग्वालियर पहुंची और उनसे मिलकर झांसी को अंग्रेजों से मुक्त कराने का रास्ता पूछा। संत गंगादास ने रानी लक्ष्मीबाई से कहा, ‘‘पुत्री, जिस प्रकार एक-एक धागे से वस्त्र तैयार होता है, उसी प्रकार भारत के एक-एक जन को एक सूत्र में बांधना होगा। जब तक भारत के सभी लोग एक सूत्र में नहीं बंधेंगे, आजादी पाने का सपना पूरा नहीं होगा। तुम रणचण्डी बनकर अपने हाथों में तलवार लेकर उठ खड़ी हो जाओ और आतताई अंग्रेजों का सर्वनाश कर दो। तुम्हारा नाम युगों-युगों तक श्रद्धा के साथ लिया जायेगा।’’
संत गंगादास ने रानी लक्ष्मीबाई को गुरु के रूप में दीक्षा प्रदान की। रानी लक्ष्मीबाई में संत गंगादास के वचन सुनकर साहस उमड़ आया और वे अंग्रेजों से युद्ध लड़ने के लिए तैयार हो गयीं। सर “यूरोज ने अपनी विशाल सेना के साथ झांसी को चारों ओर से घेर लिया और रानी को आदेश भेजा कि वह अपने सभी प्रधान सरदारों के साथ बिना हथियार उनसे आकर मिलें। रानी समझ गयी कि यह अंग्रेजों की उन्हें गिरफ्रतार करने की एक चाल थी। तब रानी ने निश्चय किया कि वे अंग्रेजी सेना के साथ युद्ध करेंगी।
महात्मा गंगादास ने अपने 800 शिष्यों को लड़ने के लिए रानी लक्ष्मी बाई को सौंपा
मार्च सन् 1858 में अंग्रेजी सेना ने झांसी पर आक्रमण कर दिया। अतः रानी ने भी अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध का बिगुल बजा दिया। संत गंगादास ने अपने युद्ध में प्रवीण 800 शिष्यों को शस्त्रों से सज्जित कर, रानी लक्ष्मीबाई के पक्ष में युद्ध लड़ने भेजा था। भीषण युद्ध के बाद रानी लक्ष्मीबाई अंततः अंग्रेजों की भारी सेना के सामने क्षीण पड़ गयीं। वे अपने दत्तक पुत्र दामोदर को लेकर अंतिम संग्राम पर निकल गयीं। और 18 जून 1858 को वे अंग्रेजों से लोहा लेते हुए बुरी तरह घायल हो गयीं। लेफ्रटीनेंट बौकर घायल रानी को पकड़ने आ पहुंचा।
महात्मा गंगादास ने किया रानी लक्ष्मीबाई का अंतिम संस्कार
उस समय संत गंगादास कालपी में प्रवास कर रहे थे। संयोग से बुरी तरह से घायल रानी किसी प्रकार उनकी कुटिया में पहुंची। उस समय उनका स्वामीभक्त सेवक रामचन्द्र देशमुख उनके साथ था। रानी बुरी तरह घायल थीं। उनका सिर तलवारों के प्रहारों से लगभग दो भागों में बंट गया था। उनकी एक आंख गायब थी। इस स्थिति में भी रानी का जीवट देखने योग्य था। उन्होंने संत गंगादास के चरणों में सिर रखते हुए कहा, ‘‘बाबा मैं झांसी की रक्षा नहीं कर सकी।’’ और यह कहते हुए उन्हांने संत गंगादास की गोद में अपने प्राण त्याग दिये। संत गंगादास ने दुखी मन से महारानी लक्ष्मीबाई का अंतिम संस्कार किया।
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